अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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बाद अणुबंधन व भारबंधन से मुक्त हो जाते हैं। यही चैतन्य परमाणु जीवन पद में प्रतिष्ठित रहना पाया जाता है। ऐसे चैतन्य इकाई भार और अणुबन्धन से मुक्ति पाकर आशा बन्धन से अपने कार्य गतिपथ सहित पुंजाकार रूप में प्रतिष्ठित होना, ऐसे पुंजाकार का एक आकार होना, ऐसे आकार के एक शरीर रचना (पिण्डज या अण्डज विधि से) रचित रहना अस्तित्व सहज कार्यक्रम है। इसी कार्यक्रम के गति क्रम में मानव शरीर रचना भी एक स्वाभाविक क्रिया है। जीवन में आशा बन्धन के उपरान्त विचार बन्धन, इच्छा बन्धन बलवती होते हुए मानव शरीर द्वारा कर्म स्वतंत्रता, कल्पनाशीलता, क्रियाशीलता, क्रियाकलाप क्रम उसके परिणाम में आंकलन होना, फलत: जागृतिक्रम परंपरा के रूप में मानव प्रतिष्ठा होना, इसी कर्म स्वतंत्रता-कल्पनाशीलता और जागृतिक्रम प्रणालीवश (क्योंकि यह नियति क्रम है) अव्यवस्था का भास-आभास में पीड़ा होना स्वाभाविक रहा। इसी आधार पर जागृत होने की आवश्यकता, सार्वभौम व्यवस्था का शरण स्वीकृत होना देखा गया। यही समग्रता के साथ मानव और समग्र व्यवस्था के अंगभूत रूप में सर्वमानव समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व सम्पन्न होने की सहज विधि समीचीन है। समग्रता के साथ मानव का निरीक्षण, परीक्षण के फलन में यह तथ्य अनुभव संगत विधि से देखने को मिला।

उक्त विश्लेषण पूरकता विधि से भौतिक-रासायनिक क्रिया-प्रक्रियाएँ, परमाणु में अंशों का परिवर्तन, परस्पर अणुओं के पूरक विधि से रासायनिक द्रव्यों की महिमा सम्पन्न कार्यकलाप अनेक रचनाएँ, प्रत्येक रचना अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण इसी क्रम में यह धरती भी एक रचना, ग्रह-गोल आदि भी एक रचना है। यह धरती भी अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण है। इस धरती का पूरकता परस्पर ग्रह-गोल, सौर-व्यूह, अनेक सौर-व्यूह, अनेक सौर-व्यूहों के समूह रूपी आकाशगंगा परस्परता में पूरकता विधि से कार्य करता हुआ देखने को मिलता है। यही व्यवस्था के रूप में कार्य करने का गवाही है। सौर-व्यूह में हर ग्रह-गोल परस्परता में निश्चित दूरी के साथ ही तालमेल बनाया हुआ दिखाई पड़ते है। ऐसे तालमेल ही व्यवस्था का स्वरूप है। क्योंकि ऐसे तालमेल विधि से पूरकता, उदात्तीकरण, विकास इसी धरती पर देखने को मिलता है। विकसित परमाणु ही चैतन्य इकाई जीवन है; आशा बन्धन जीवों में जीवनी क्रम; आशा, विचार, इच्छा बन्धन से जागृति क्रम मानव के