अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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मानव ही अनुभव को व्यवहार में प्रमाणित करता है। फलस्वरूप मानव सहज अपेक्षा और जीवन सहज अपेक्षा सर्वसुलभ होना स्वाभाविक है। इसलिये यह सर्व स्वीकृत भी है। सम्पूर्ण प्रयोग सामान्य आकांक्षा, महत्वाकांक्षा संबंधी वस्तु के रूप में प्रमाणित होता है। यह सब व्यवस्था में उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता के अर्थ में प्रमाणित होता है। यही इसकी सार्थकता है। इससे यह भी पता चलता है कि नैतिकता पूर्वक ही मानव व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह कर पाता है। मानवीयतापूर्ण चरित्र पूर्वक व्यवहार करता है। मूल्य और मूल्यांकन पूर्वक जी पाता है अथवा संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति पूर्वक जी पाता है। यही सुख, सुन्दर, समाधान पूर्वक जीने की कला का स्वरूप है। प्रामाणिकता मूल्य, चरित्र, नैतिकता का अविभाज्य स्त्रोत है। प्रामाणिकता अस्तित्व में अनुभव सहज अभिव्यक्ति है। सम्पूर्ण अस्तित्व व्यवस्था का ही ताना-बाना होने के कारण मानव भी व्यवस्था में जीने की आवश्यकता बना ही रहा।

चारों अवस्थाओं का अनुभव ही जागृति है। चारों अवस्थाएँ अस्तित्व सहज सहअस्तित्व के रूप में वर्तमान होना ही स्थिति सत्य, वस्तु स्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य के रूप में सूत्रित और व्याख्यायित है। इस प्रकार अस्तित्व ही सम्पूर्ण स्थिति, गति, सूत्र और व्याख्या है। अस्तित्व न घटता है न बढ़ता है। इसकी अक्षुण्णता वर्तमान के रूप में होना देखा गया है। स्थिति सत्य अपने स्वरूप में सत्ता में संपृक्त प्रकृति के रूप में विद्यमान है ही। यही विद्यमानता विकास, पूरकता, उदात्तीकरण, जागृति और प्रामाणिकता के रूप में व्यक्त होना स्पष्ट है। वस्तु स्थिति सत्य देश, काल, दिशा के रूप में देखने को मिलता है। यह परस्परता के आधार पर समग्रता के साथ व्याख्या का होना देखा जाता है। जैसे-एक से अधिक परमाणु अंशों के परस्परता में एक दूसरे के बीच एक निश्चित दूरी जिस स्थिति में सभी अंश एक निश्चित आचरण के लिये अर्पित रहना देखने को मिलता है। इसमें निश्चित दूरी ही देश के रूप में, निश्चित गति ही काल के रूप में, निश्चित क्रिया (आचरण) ही दिशा के रूप में व्याख्यायित है। इसलिये अनेक अणुओं के परस्परता में अणुरचित पिण्डों के परस्परता में देश, काल, दिशा स्पष्ट होना स्वाभाविक है। इसलिये प्रत्येक धरती में परस्पर वस्तुओं के बीच की एक निश्चित दूरी ही देश के रूप में दिखाई पड़ती है। एक ही धरती के परस्पर वस्तुओं