अध्यात्मवाद
by A Nagraj
रूप में स्पष्ट है। जागृति क्रम ही जागृति रूपी मंजिल के लिए सीढ़ी होना स्वाभाविक रहा। स्वाभाविक प्रक्रिया का तात्पर्य विकासक्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति और उसकी निरंतरता से है। विकास क्रम भी अपने में निरंतर है। विकास भी निरंतर है, जागृति क्रम भी निरंतर है और जागृति भी निरंतर है। जागृति क्रम का स्वरूप है शिक्षा-संस्कार पूर्वक जागृति की स्वीकृति सम्पन्न होता है। जागृति के अनन्तर मानव कुल सार्वभौम व्यवस्था सहज वैभव सम्पन्न होना। फलस्वरूप जागृति स्वीकृति के अनन्तर प्रमाणित होने का मार्ग प्रशस्त रहता है। इस विधि से अनेकानेक मानव संतान जागृति क्रम में अवतरित होना, जागृतिपूर्ण मार्ग प्रशस्त होना यही मानव कुल का स्वराज्य है, वैभव है।
स्वराज्य व्यवस्था ही होता है, शासन नहीं होता। व्यवस्था के संदर्भ में पहले से उसके स्वरूप को स्पष्ट किया जा चुका है। परिवार मानव विधि से ही स्वराज्य वैभव का उदय होना देखा जाता है। हर परिवार में शरीर यात्रा के लिए शरीर पोषण, संरक्षण एवं समाज गति के लिये आवश्यकीय वस्तुओं को उत्पादित करने का भी कार्यकलाप समाया रहता है। संबंध-मूल्य-मूल्यांकन-उभयतृप्ति अथवा परस्पर तृप्ति विधि से व्यवहार और आचरण को प्रकट करना मूलत: परिवार का तात्पर्य है। ऐसे परिवार में उक्त तीनों प्रकार की आवश्यकताएँ बनी ही रहती है। इसके निर्वाह क्रम में उत्पादन कार्य की आवश्यकता बना ही रहता है। इसका तात्पर्य यह हुआ परिवार गति और समाज गति के लिए उत्पादन कार्य भी एक आवश्यकीय तत्व है। अस्तु, संबंध-मूल्य-मूल्यांकन और उभय तृप्ति विधि से परिवार और समाज सूत्र और आवश्यकता से अधिक उत्पादन-कार्य में परिवार के हर सदस्य का उपयोगिता-पूरकता विधि से भागीदारी परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था के सूत्र में प्रमाणित हो पाता है। इसीलिये प्रत्येक परिवार में, से, के लिए न्याय सुलभता, उत्पादन सुलभता, विनिमय सुलभता, स्वास्थ्य-संयम सुलभता नित्य सार्थक होना सहज है। जिसका स्रोत रूप में मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार और स्वास्थ्य-संयम कार्यकलापों के रूप में होना पाया जाता है। इस प्रकार व्यवस्था सार्वभौमता के दिशा में प्रशस्त होता है और अखण्ड समाज का सूत्र भी नित्य प्रभावी होना पाया जाता है। इसमें मूल सूत्र सहअस्तित्व सूत्र ही है। यह अथ से इति तक अनुभवमूलक विधि से ही समझ में आता है। अभिव्यक्ति, संप्रेषणा,