अध्यात्मवाद
by A Nagraj
विज्ञान तकनीकी गति अपने में अपने ढंग से प्रेरणादायी होना देखा गया है। ये सब होने मात्र से मानव की प्रवृत्ति में कुछ गुणात्मक परिवर्तन हो गये ऐसा कुछ हुआ नहीं। अच्छा कपड़ा पहना हुआ, अच्छा सड़क, अच्छा गाड़ियों में घूमता हुआ आदमी को देखा जाता है। युद्ध, भय, संघर्ष इस शताब्दी में सर्वाधिक उग्र रूप धारण किया है। आदिमानव जैसा भय-भ्रम-शंका-कुशंकाओं से ग्रसित रहा है वैसा आज भी यह मानव जाति दिखाई पड़ता है। विभीषिका का तात्पर्य भय से पीड़ित मानव द्वारा भय को घटित करने के रूप में है। ऐसे विभीषिकाएँ सर्वाधिक रूप में मानव में निहित अमानवीयता के भय से प्रताड़ित, पीड़ित, संघर्षरत होना दिखाई पड़ती है।
संघर्ष का मूल मुद्दा अधिक संग्रह, अधिक सुविधा और पद ही है। पद से सुविधा, सुविधा से पद तक अनुवर्तीयता को भले प्रकार से किशोर अवस्था तक की पीढ़ियों में प्रभावित होना इस शताब्दी में साक्षित हुआ है। संघर्ष का परिणाम उभय नाश या एक का अधिक, एक का कम नाश घटित होना देखा गया है। तीसरा कोई परिणाम संघर्ष से निकलता नहीं। एक का सुरक्षा, दूसरे का नाश या उभय सुरक्षा ये दोनों संघर्ष विधि से निकलता नहीं है। उल्लेखनीय यही है किसी के नाश से हम सम्पन्न हो जायेगें ऐसा सोचते हुए ही संघर्ष किया जाता है। यह संघर्ष शासन और उसके विद्रोही संगठनों के साथ, इतना ही नहीं परिवार-परिवार के साथ और व्यक्ति, व्यक्ति के साथ देखने का मिला। यह संघर्ष अथवा संघर्ष की पराकाष्ठा ही आज समाधान के लिए एक मार्ग प्रशस्त करता है अथवा प्यास जगाता है। हर संघर्ष शांति की अपेक्षा में अथवा समाधान की अपेक्षा में ही आरंभ किया हुआ सुनने में मिलता है। उल्लेखनीय बात यही है संग्रह और सुविधा का तृप्ति बिन्दु होता नहीं। इसके लिए किया गया सभी संघर्ष व्यर्थ होना, पीड़ा का ही कारण होना पाया जाता है। अतएव संघर्ष ही बंधन की पराकाष्ठा का प्रकाशन है। समाधान और अनुभवमूलक विधि से किया गया सम्पूर्ण विचार, व्यवहार, कार्य, व्यवस्था और आचरण ही बन्धन मुक्ति का साक्ष्य और प्रमाण है। समाधान से ही समस्या की मुक्ति और प्रामाणिकताएं सदा-सदा के लिए छल-कपट, दंभ, पाखंड से मुक्ति है। इच्छा बन्धन जटिलतम रूप में मानव के कर्म स्वतंत्रता, कल्पनाशीलतावश विन्यासित हुआ है। विन्यासित होने का तात्पर्य भ्रमात्मक विचारपूर्वक छल, कपट,