व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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होने योग्य शरीर ही स्वस्थ शरीर है। यह शरीर संतुलन का तात्पर्य है। नैसर्गिकता की पवित्रता इसके लिये एक अनिवार्य विधि है। इसी के साथ ऋतु संतुलन इस धरती पर उष्मा वितरण - विनियोजन कार्यक्रम में सशक्त भूमिका है। वातावरणिक और भूमिगत उष्मा धरती के ऊपरी सतह में संतुलन को बनाए रखने के लिये ऋतु संतुलित कार्यकलाप ही महत्वपूर्ण भूमिका है। ऋतु वातावरिणक उष्मा को भूमिगत करने और उसे आवश्यकतानुसार धरती अपने सतह में उपयोग करने के क्रम को बनाए रखता है। यथा आप हम सब इस बात को देखे हैं जैसे ही ठंडी ऋतु प्रभावित होता है वैसे ही धरती से उष्मा बर्हिगत होता हुआ दिखाई पड़ती है जिससे धरती के ऊपरी सतह में जो चारों अवस्था है उन्हें संतुलन प्रदान करता है। ग्रीष्म ऋतु में धरती अपने ऊपरी सतह के श्वसन द्वारा उष्मा सहित विरल द्रव्यों को अपने में समा लेता है। इसका विधि बाह्य वातावरण में उष्मा का दबाव अधिक होने, और धरती के ऊपरी सतह के कुछ नीचे तक कम होने के आधार पर क्रिया सम्पन्न होती है। इसे हर देश काल में परीक्षण किया जा सकता है, स्वीकारा जा सकता है। वर्षाकाल में धरती के सतहगत उष्मा और वातावरणिक उष्मा संतुलन स्थापित करने और उसे संरक्षित कर रखने का क्रियाकलाप दिखाई देता है। फलस्वरूप सम्पूर्ण फल, वृक्ष, पौधे फलवती होने का कार्य दिखाई पड़ती है। इससे स्पष्ट हो गया है कि धरती की ऊपरी सतह में संतुलन विधि से वर्षाकालीन, शीतकालीन और उष्णकालीन अन्न-वनस्पतियों को पहचाना जाता है। इसे संतुलित बनाए रखना, इसके लिये मानव स्वयं पूरक होना ही नैसर्गिक संतुलन का तात्पर्य है। ये सब अर्थात् मानव संबंध, नैसर्गिक संबंध, ब्रह्माण्डीय संबंध निरन्तर वर्तमान है ही। इनके प्रति जागृत होना ही संबंधों को