व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
है। जीवन अपने जागृति को प्रमाणित करना ही मानव परंपरा में प्रधान कार्य है। जागृति को प्रमाणित करने के क्रम में सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज ही साक्ष्य है। यही जागृति लोकव्यापीकरण होने का भी साक्ष्य है।
मानव संबंध के अतिरिक्त नैसर्गिक एवं ब्रह्माण्डीय संबंध भी बना ही रहता है। ब्रह्माण्डीय संबंध क्रम में मानव का स्वभावगति सम्पन्न कार्यकलापों के पोषक होना पाया जाता है क्योंकि मानव के इस धरती पर प्रकट होने के पहले भी और बाद भी इस धरती के संतुलन में ब्रह्माण्डीय किरणों का अथवा तरंगों का पूरकता सिद्ध हो चुकी है क्योंकि यह धरती समृद्ध हो चुका है। इस धरती में जब से मानव धातु युग को पार कर आस्था, राज्य युग को झेलता हुआ वैज्ञानिक युग में प्रवेश होते ही इस धरती के साथ असंतुलनकारी कार्यकलापों को सर्वाधिक अपनाया। जिसका विचार प्रसव स्वरूप उपभोक्ता विधि में मूल्यांकित हो चुका है। उपभोक्ता विधि समाज विरोधी है यह भी मूल्यांकित हो चुका है। अखण्ड समाज की अभीप्सा सर्वमानव में विद्यमान है। यह अभयता के अपेक्षा पर निर्भर है। इसलिये मानव संस्कृतिपूर्वक ही अखण्ड समाज की ओर मार्ग प्रशस्त होना पाया जाता है। अतएव ब्रह्माण्डीय किरणों से लाभान्वित यह धरती संतुलित रहने के क्रम में ही मानव को संतुलित रहने की आवश्यकता और अनिवार्यता है।
नैसर्गिक संबंध सहज प्रक्रिया मानव में, से, के लिये अविभाज्य है। धरती, वायु, जल के साथ ही मानव शरीर परंपरा का होना पाया जाता है। ऐसी शरीर परंपरा स्वस्थ रहने की आवश्यकता है ही। शरीर स्वस्थता की परिभाषा पहले की जा चुकी है। जीवन जागृति पूर्वक परंपरा में व्यक्त