व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
इससे स्पष्ट हो गया है कि शिक्षा-संस्कार का उद्देश्य स्वायत्त मानव के रूप में समृद्ध करने में सक्षम रहना है।
स्वायत्त मानव स्वयं के प्रति विश्वास, स्वयं में विश्वास का तात्पर्य व्यवस्था के रूप में जीने, समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने में विश्वास से हैं। श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, व्यवस्था में जीने और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने में समर्थ सभी व्यक्ति श्रेष्ठ हैं जो प्रमाण के रूप में प्रमाणित किये जा रहे हैं। ऐसे सभी के प्रति सम्मान होना स्वाभाविक है। यही तथ्य से श्रेष्ठता के प्रति सम्मान स्पष्ट है। इसे ऐसा भी कहा जा सकता है स्वयं जिस बात को चाहते हैं उन तथ्यों में प्रमाणित सभी व्यक्ति सम्मान के लिये पात्र हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति सम्मान व्यक्त करने से हैं। सम्मान का तात्पर्य पूर्णता के अर्थ में स्वीकृति और मूल्यांकन सहित संप्रेषित हो पाना। संप्रेषणा का भी तात्पर्य पूर्णता के ही अर्थ में ही प्रस्तुत हो पाना बनता है। इसलिये सम्मान सहज श्रेष्ठता सर्वमानव में स्वीकृत होता है। स्वायत्त मानव में स्वयं के प्रति सम्मान, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान सहित ही प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन प्रमाणित होता है। संतुलन का तात्पर्य ज्ञान दर्शन, विवेकपूर्ण तर्क (विवेचना, विश्लेषण) और आचरणों में सामरस्यता, एक दूसरे के साथ पुष्टि प्रमाण होने से है। व्यक्तित्व का तात्पर्य किये जाने वाले आहार, विहार, व्यवहार और कार्यों से मूल्यांकित होने से है। प्रतिभा का तात्पर्य सम्पूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिप्रेक्ष्य, देश, कालों में प्रामाणिकता और उसकी निरंतरता, समाधान और उसकी निरंतरता के रूप में अभिव्यक्त संप्रेषित, प्रकाशित करने में विश्वास। इसका सत्यापन भी इसी के साथ समाया रहता है। सत्यापन मैं कर सकता हूँ, करूँगा, किया हूँ, कर रहा हूँ, इन ध्वनि और इन ध्वनियों से संकेतिक ध्रुवों से है। किया हुआ