व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
हूँ, कर रहा हूँ, यह कर सकता हूँ, करूँगा का प्रेरणास्रोत होना पाया जाता है। इसी विधि से परंपरा समृद्ध होने के तथ्य को समझा गया है।
स्वायत्त मानव का व्याख्या प्रत्येक मानव ही होना पाया जाता है। इसके बावजूद भाषा और शब्द के माध्यम से सच्चाई को इंगित कराने की प्रक्रिया, इसकी सार्थकता की अपेक्षा है। वांङ्गमय सार्थकता का तात्पर्य सच्चाइयाँ अपने स्वरूप में इंगित होने से है। यह इंगित होना भी एक प्रक्रिया है। अतएव स्वयं में विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलनपूर्वक ही मानव व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबी होना पाया जाता है। व्यवहार में सामाजिक होने का तात्पर्य व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होना ही है। इस प्रकार मानव ही प्रमाण का आधार है न कि वांङ्गमय। वांङ्गमय का स्मरण यहाँ इसलिये किया गया है कि वांङ्गमय प्रमाण के आधार पर मानव जाति विविध परंपरा में क्षत-विक्षत हो चुका है। अर्थात् स्वयं पर विश्वास हो पाने का मार्ग प्रशस्त नहीं हो पाता। प्रत्येक मानव स्वयं पर विश्वास नहीं करेगा, तब तक अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था का अंगभूत होना प्रमाणित नहीं करेगा। मानव अपने को प्रमाणित किये बिना परंपरा होना संभव नहीं है। इसीलिये स्वायत्त मानव को पहचानने के उपरान्त ही स्वायत्त परिवार प्रमाणित होना देखा गया है। स्वायत्त मानव के परीक्षण, मूल्यांकन और प्रस्ताव क्रम में व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबन एक अनिवार्यतम अधिकार और अभिव्यक्ति है। व्यवहार में सामाजिक होने का मूल रूप आचरण ही है। मानवीयतापूर्ण आचरण में ही मूल्य, चरित्र, नैतिकता का प्रकाशन-संप्रेषणा होना पाया जाता है। मूल्यों का प्रमाण संबंधों को पहचानने के उपरान्त ही होता है। यह