व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
व्यवस्था का विखण्डन होना सिद्ध हुआ। उन्माद इसलिये कहा गया कि जागृत मानव किसी व्यवस्था का विखण्डन करता नहीं। इतना ही नहीं हर जागृत मानव व्यवस्था का पोषक और संरक्षक, धारक-वाहक होना पाया जाता है। इस परीक्षित तथ्य के आधार पर हर मानव यह निश्चय कर सकता है कि विखण्डन विधि और कार्य मानव सहज मानवीयता का द्योतक नहीं है। इसी के साथ यह भी आवाज निश्चित रूप में मिलता है कि व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी ही मानव तथा मानवीयता का द्योतक है। इस विश्लेषणोंपरान्त पाये गये फल-परिणामों का मूल्यांकन से इस निष्कर्ष में आते हैं कि मानव समाज अपने अखण्डता और सार्वभौमता के अर्थ में स्वीकृत है और अपेक्षा बनी हुई है। अतएव इसका मूल स्रोत रूपी मानवीय शिक्षा संस्कार पक्ष मानवीयतापूर्ण व्यवस्था और मानवीयतापूर्ण आचरण रूपी सार्वभौम राष्ट्रीय चरित्र, नैतिकता और मूल्यों का अविभाज्य आचरण (संविधान) का स्वरूप और महिमाओं का आवश्यकता सूत्र पर आधारित विधि से अध्ययन करेंगे। क्योंकि अध्ययन से आचरण तक ही समाजशास्त्र का किंवा सम्पूर्ण शास्त्र का प्रयोजन और आवश्यकता स्वयं एवं सार्वभौम शुभ के रूप में तृप्ति और उसकी निरंतरता को पाना सहज समीचीन रहता ही है। इसलिये इसका अध्ययन और आचरण सुलभ है।
पहले नौ बिन्दुओं में इंगित किये गये तथ्यों का अध्ययन ही शिक्षा-संस्कार का सर्वसाधारण और आवश्यक स्वरूप है। अस्तित्व में सदा-सदा ही समाधान और सामरस्यता सहअस्तित्व सहज वर्तमान होने के कारण है। और विरोधाभास और विशेष तथा सामान्य जैसी विषमताओं का कोई गवाही नहीं है। ऐसा विरोधाभास मानव में क्यों आया और कैसे आया इसके उत्तर में पहले विदित कराया गया है