व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
सम्पन्नता और वाहकता; जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शनज्ञान और मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान में प्रमाणित होने के उपरान्त सहज होना पाया जाता है। इसे शिक्षा और शिक्षण संस्थापूर्वक ही सम्पूर्ण मानव में लोकव्यापीकरण करना परम आवश्यक है।
शिक्षण संस्थाएँ प्रचलित रूप में अनेकानेक भाषा, देश विधि से स्थापित है ही। इसके बहुसंख्या रूप में मानव अध्ययन किया हुआ है अर्थात् शिक्षा-संस्कार पाया हुआ है। प्रचलित शिक्षा-संस्कार से क्या फल, परिणाम, निष्पन्न हुआ है यह समीक्षित हो चुका है। जो मानव मानस में सर्वाधिक भाग नकारात्मक सूची के रूप में दिखाई पड़ता है। इसका भी नीर-क्षीर, न्याय अर्थात् स्पष्ट रेखाकरण इस प्रकार देखा गया है कि सामान्य आकांक्षा और महत्वाकांक्षा में सार्थक तकनीकी मानव सहज स्वीकृति के रूप में, सामरिक तंत्र और तकनीकी ह्रास विधि नियम रूपी विज्ञान अस्वीकृत है। जैसे विखण्डन विधि ह्रास की ओर पदों को इंगित करता है। जैसे परमाणु एक व्यवस्था के रूप में है उसके विखण्डन के अनन्तर वह एक व्यवस्था के रूप में दिखाई नहीं पड़ता है इसके विपरीत अनिश्चित गति से दिखना हो पाता है क्योंकि निश्चित गति परमाणु में ही दिखाई पड़ता है और परमाणु में एक से अधिक अंशों का होना पाया जाता है। निश्चित गति का तात्पर्य हर निश्चित संख्यात्मक परमाणु अंशों से गठित परमाणुओं का आचरण निश्चित रहने से है। इनमें कोई दुविधा नहीं रहती है। अतएव परमाणु के विखण्डन के उपरान्त परमाणु सहज व्यवस्था, अणु विखण्डन के उपरान्त अणु सहज व्यवस्था, अणु रचित रचनाओं के विखण्डन के उपरान्त उन-उन रचना सहज व्यवस्थाएँ दिखाई नहीं पड़ता है। इसका तात्पर्य यही हुआ, विखण्डन कार्य का उन्माद से ही