व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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में निष्ठान्वित रहना विधि है। यही सम्पूर्ण उत्सवों का आधार होना पाया जाता है।

मानव समाज में उत्सव

मानव समाज का स्वरूप अपने अखण्डता में प्रमाणित होना स्पष्ट किया जा चुका है क्योंकि समुदाय समाज होता नहीं, समाज समुदाय होता नहीं। समाज और उसका वैभव अनुभवमूलक प्रणाली से किया गया अभिव्यक्ति विन्यास, विचार विन्यास, व्यवहार विन्यास और कार्य विन्यास ही है। विन्यास का तात्पर्य विवेक सहित न्यायपूर्वक किया गया संप्रेषणा है। इस विधि से समाज अपने अखण्डता के स्वरूप में ख्यात होना स्वाभाविक है। अखण्ड समाज अपने परिभाषा में पूर्णता के अर्थ में किया गया तन, मन, धन रूपी कार्यकलापों का निरन्तर गति अथवा अक्षुण्ण गति से है। इस प्रकार परिभाषा के रूप में भी पूर्णता अपने आप में इंगित होना पाया जाता है। पूर्णता का स्वरूप परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था और स्वानुशासन के रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था क्रम में व्यवस्था स्वयं क्रियापूर्णता और उसकी निरन्तरता का द्योतक और प्रमाण है। स्वानुशासन जागृति पूर्णता का प्रमाण है। यही आचरणपूर्णता का स्वरूप है। पूर्णता के अनन्तर उसकी निरन्तरता का होना देखा गया है। क्रियापूर्णता, आचरणपूर्णता और उसकी निरंतरता सदा-सदा के लिये गतिशील रहना ही समाज गति का तात्पर्य है। ऐसी स्थिति मानव परंपरा में अस्तित्व सहज अनुभूति, अस्तित्व ही सहअस्तित्व सहज होने के आधार पर विचार शैली, अस्तित्व में ही विकास और जागृति प्रमाणित होने के क्रम में मानव ही जागृति को प्रमाणित करना सम्पूर्ण अखण्डता