व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

Back to Books
Page 231

स्वामी (साथी) - सेवक (सहयोगी) संबंध में स्वयं स्वीकृत प्रणाली, स्वयं स्वीकृत विधि से व्यवस्था में भागीदारी निर्वहन के आधार पर घोषणा कार्यप्रणाली है। इस क्रम में भाई संबोधन या बहन संबोधन समुचित रहता है। इसी की आवश्यकता है। व्यवस्था संबंध में परिवार सभा से विश्व परिवार सभा तक की समान संबोधन होना और कार्यों की समानता भी प्रमाणित होना पाया जाता है। यह स्वाभाविक विधि है हर सभा में एक प्रधान व्यक्ति को निर्वाचित कर लेना, पहचानना, अधिकार सम्पन्न रहना एक आवश्यकता बना रहता है। यह जनतांत्रिक प्रणाली, पद्धति, नीतियों को प्रमाणित करने का गठन कार्य है। अतएव सभा प्रणाली में भाई-बहन-मित्र संबोधन में समानता, दायित्वों, कर्तव्यों का वहन करने में स्वयंस्फूर्त स्वीकृत विधि से सम्पादित होता है। यही जनतांत्रिकता का तात्पर्य है। इसी विधि से विरोध विहीन, विवाद विहीन, सामरस्यता और समाधान पूर्ण अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में कार्यरत रहना पाया जाता है। इसकी आवश्यकता सर्वमानव में होना पाया जाता है। इसकी नित्य समीचीनता जागृति विधि पूर्वक स्पष्ट हुआ है।

यहाँ इस तथ्य पर ध्यान रहना आवश्यक है कि प्रत्येक संबोधन में प्रयोजनों का अभीष्ट बना ही रहता है। अभीष्ट का तात्पर्य अभ्युदय को अनिवार्यता के रूप में स्वीकारा गया अनुभव मूलक मानसिकता से है। इस प्रकार संबोधन के साथ प्रयोजन उभय पक्ष में स्वीकृत होना, इंगित होना ही सार्थकता है। संबोधन की सार्थकताएँ व्यवहार, कार्य, आचरण, प्रवृत्ति का मूल रूप होना देखा गया। क्योंकि हर मानव में विचारपूर्वक ही कार्य-व्यवहार सम्पन्न होना देखा जाता है।