व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

Back to Books
Page 230

प्रयोजन है वह सब मानव कुल में ही प्रमाणित होता है। वह 1. माता-पिता, 2. भाई-बहन, 3. गुरू-शिष्य, 4. मित्र, 5. पति-पत्नी, 6. स्वामी (साथी)-सेवक (सहयोगी), 7. पुत्र-पुत्री। इस प्रकार से 7 संबंध। इसमें से पति-पत्नी संबंधों को छोड़कर बाकी सभी संबंध पुत्र-पुत्रीवत्, माता-पितावत्, गुरूवत्, शिष्यवत्, मित्रवत्, भाई-बहिनवत्, स्वामी-सेवकवत् के रूप में पहचाना जाना सहज है। इसमें सर्वाधिक अथवा विशाल रूप में होने वाले प्रतिष्ठा को मित्र के रूप में पहचाना जाना स्वाभाविक है।

इन सभी संबंधों के साथ सार्थकता अथवा प्रयोजनों की अपेक्षा परस्पर स्वीकृत रहा करता है जैसा – माता, पिता से अपेक्षा जागृति, प्रामाणिकता सहित समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व का होना प्रत्येक संतानों में अपेक्षित-प्रतीक्षित रूप में मिलता है। हर संतान के साथ माता-पिता की अपेक्षा जागृति, प्रामाणिकता सहित समाधान, कर्तव्य और दायित्व सहज निष्ठा का अपेक्षा, प्रतीक्षा, आवश्यकता के रूप में सर्वेक्षित होता है। हर शिष्य अपने गुरू से प्रामाणिकता, समाधान और वात्सल्य की अपेक्षा रखता है। हर विद्यार्थी से गुरू की अपेक्षाएं तीव्र जिज्ञासा, ग्राह्यता सहित अवधारणाओं के रूप में देखना बना ही रहता है।

भाई-बहनों के परस्परता में अभ्युदय अर्थात् सर्वतोमुखी समाधान, वर्तमान में विश्वास सहित पूरकता का अपेक्षा बना ही रहता है। इसी प्रकार मित्र संबंधों में भी होना पाया जाता है।

पति-पत्नी संबंधों में परस्पर व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी परिवार मानव का सम्पूर्ण दायित्व-कर्तव्य, अपेक्षा, प्रतीक्षा बना ही रहता है।