व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
प्रणाली में जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करने में सम्पूर्ण समझदारी, निष्ठा सहित कार्य-व्यवहार निर्देशित-संदेशित हो जाता है।
मानव अपने परंपरागत विधि से संदेश और निर्देशपूर्वक ही प्रमाणित होने की विधि स्पष्ट हो जाता है। संदेश प्रणाली में अस्तित्व सहज कार्य और मानव सहज कार्य का संदेश समाया रहता है। यही शिक्षा तंत्र के लिये संपूर्ण वस्तु है। ऐसे संदेश के क्रम में काल, देश निर्देशन अवश्यंभावी है। इसी से पहचानने, निर्वाह करने का प्रमाण परंपरा में स्थापित होता है। मानव सहज कार्यकलापों को कायिक, वाचिक, मानसिक रूप में या प्रत्येक कृत, कारित, अनुमोदित रूप में हर मानव को कार्यरत रहता हुआ पाया जाता है। जागृत मानव में ही हर कार्य चिन्हित प्रणाली, निश्चित प्रयोजन विधि से सम्पन्न होना देखा गया है। यह भी देखा गया हर निश्चित लक्ष्य चिन्हित प्रणाली से ही सम्पन्न होता है या सार्थक होता है या सफल होता है। यह हर गंतव्य, हर प्राप्ति सहज प्रयोजनों को पाने के क्रम में देखने को मिलता है; जैसा किसी स्थली, नगरी, एक गाँव से दूसरे गाँव जाने के लिये एक व्यक्ति तत्पर होता है। उस स्थिति में वह जहाँ रहता है वह स्थली निश्चित रहता है, जहाँ पहुँचना है वह भी निश्चित रहता है। इस बीच में चिन्हित मार्ग रहता है अथवा दिशा निर्धारण विधि से चिन्ह बन जाता है। कोई व्यक्ति परिवार, घर बनाने के लिये सोचता है, यह आवश्यकता पर आधारित रहता है। आवश्यकता जब गुरूतर हो जाती है आदमी घर बनाता ही है। घर बनाना लक्ष्य बन जाता है। उसका आकार-प्रकार मानव में विचार और चित्रण में आता है। ऐसे चित्रण को धरती पर चिन्हित किया जाता है। इसी धरती पर घर बनाने का कार्य सम्पन्न होता है। इसमें भी चिन्हित मार्ग,