व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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होना व्यवहारिक है। ऐसी अर्हता को शिक्षा-संस्कार परंपरा में प्रावधानित रहना मानव सहज वैभव में से एक प्रधान आयाम है। इस प्रकार चेतना विकास मूल्य शिक्षा सम्पन्न शिक्षित व्यक्ति ही अध्ययनपूर्वक अपने में स्वायत्तता का अनुभव करने और सत्यापित करता है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा, मानवीयतापूर्ण ज्ञान, दर्शन और आचरण सम्पूर्ण अध्ययनोपरांत किये जाने वाले हर सत्यापन को वाचिक प्रमाण के रूप में स्वीकारना नैसर्गिक व्यवहारिक आवश्यक मानव परंपरा में से प्रयोजनशील होना देखा गया है क्योंकि परस्पर संबोधन सत्यापन के साथ ही संबंध, कर्तव्य व दायित्वों की अपेक्षाएँ और प्रवृत्तियाँ परस्परता में अथवा हरेक पक्ष में स्वयं स्फूर्त होना पाया जाता है।

विवाह संबंध समय में आयु की परिकल्पना का होना पाया जाता है। आयु के साथ स्वास्थ्य, समझदारी, ईमानदारी, कारीगरी की अर्हता जिम्मेदारी, भागीदारी सहित दाम्पत्य संबंध में प्रवृत्ति यह प्रधान बिन्दुएं हैं। इसका परिशीलन विवाह संबंध के लिये उत्सवित नर-नारियाँ का सत्यापन, अभिभावकों की सम्मति, शिक्षा-संस्कार जिनसे ग्रहण किये और उसे अध्ययनपूर्वक जिन अभिभावकों और आचार्यों के सम्मुख प्रमाणित किया, उनकी सम्मति यह प्रधान रूप में जाँच पूर्वक एकत्रित कर लेना आवश्यक है। इस संयोजन कार्य को करने वाला व्यक्ति प्रधानत: विवाह संबंध में प्रवेश करने वाले हर नर-नारी का पहला अभिभावक होंगे, दूसरा शिक्षक या आचार्य रहेंगे, तीसरे स्थिति में भाई-बहन और मित्र रहेंगे।

स्वायत्त मानवाधिकार के लिए 18 वर्ष की आयु तक सम्पन्न होने की व्यवस्था है। इसके उपरान्त परिवार मानव के रूप