व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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  • सब मानव के रूप में पहचानने योग्य है और आवश्यकता है।
  • जाति - मानव की जाति एक, कर्म अनेक हैं। जबकि विभिन्न आजीविका के आधार पर आज विभिन्न जाति मानते हैं।
  • मत - प्रामाणिकता को प्रतिपादित करने के क्रम में सम्मतियों का सत्यापन मत है। जबकि वाद-विवाद को आज मत माना जाता है।
  • पंथ - किसी मत/धर्म के आनुषंगीक निश्चित व्यक्ति का पहचान सहित आस्था रखने वाली परंपरा।
  • परंपरा - पूर्णता के अर्थ में समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व पंथ या परंपरा हो, जबकि आज रूढ़ियों को परंपरा माना जाता है।
  • धर्म = धारणा - जिससे जिसका विलगीकरण न हो। मानव धर्म सुख है। सुख, मानव से विभाजित नहीं किया जा सकता। सुख = समाधान = व्यवस्था + व्यवस्था में भागीदारी। वक्तव्य - सुदूर विगत से धर्म का भाषा प्रयोग हुई। धर्म अपने मूल रूप में किसी भी शास्त्र में प्रतिपादित हुआ नहीं। धर्म के लक्षणों को विभिन्न जलवायु में विभिन्न समुदाय धर्म मानते हुए आज तक चल रहे हैं।

भाषा - सत्य भास जाए यही भाषा है। भाषा के प्रयोग में हम संप्रेषणा शब्द प्रयोग करते हैं। पूर्णतया प्रेषित हो जाना संप्रेषणा का तात्पर्य है। इस प्रकार भाषा संप्रेषणापूर्वक परंपरा में सार्थक होना उसकी महिमा है। जबकि सत्य मानव कुल में प्रमाणित न होने के कारण