व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
वस्तु मूल्य दो हैं :- 1. उपयोगिता मूल्य, 2. कला मूल्य।
चरित्र के स्वरूप को स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष एवं दयापूर्ण कार्य-व्यवहार के रूप में देखा गया है। यह तीनों स्थितियाँ मानव में ही परिभाषित रहना पाया जाता है। मानव में यह परिभाषित होने के आधार को मानवत्व रूपी मूल्य, चरित्र, नैतिकता का सामरस्यता सूत्र में वर्तमान रहता हुआ देखा गया है, देखा जा सकता है। इसका प्रयोजन सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करना ही होता है। सार्वभौम व्यवस्था अपने में नैतिकतापूर्ण अखण्ड समाज संतुलन को सूत्रित व्याख्यायित करता है। यही मानवत्व के संबंध में सम्पूर्ण अध्ययन का स्वरूप होना देखा गया है।
मूल्य, चरित्र, नैतिकता ही मानव में, से, के लिये न्याय सूत्र का आधार है। मानव में ही यह परस्पर अपेक्षा है, परस्परता में मूल्य, चरित्र, नैतिकता को मूल्यांकित करें। इसी मूल्यांकन विधि में उभयतृप्ति और अखण्ड समाज रचना सहज सूत्र देखने को मिला है। इस विधि से मूल्य, चरित्र और नैतिकता ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का प्रमाण, सूत्र एवं व्याख्या है।
मौलिक अधिकार का आधार भी मानवत्व ही है। यही स्वत्व, स्वतंत्रता, अधिकार रूपी मूल ऐश्वर्य है अथवा सम्पूर्ण ऐश्वर्य है। इसी ऐश्वर्य को वर्तमान में प्रमाणित करने के क्रम में ही स्वराज्य और स्वतंत्रता को परंपरा के रूप में प्रमाणित कर सकते हैं जिससे ही समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व सर्वसुलभ होना नित्य समीचीन है। सर्ववांछा अथवा अपेक्षा अथवा आवश्यकता सर्वमानव में निहित है।