भौतिकवाद
by A Nagraj
है। भ्रम और विकास का कहीं दूर दूर तक तालमेल नहीं है। परस्पर पूरकता-उपयोगिता विधि पूर्वक विकास सहज गति सार्वभौम है।
सहअस्तित्व सहज रूप में विकास परमाणु में होने वाली प्रक्रिया है। इसी क्रम में गठन पूर्णता होती हैं। ऐसा गठनपूर्ण परमाणु चैतन्य पद में संक्रमित होता है यही जीवन का स्वरुप है। इसमें पहला आशाबन्धन अर्थात् आशा में भ्रम, दूसरा विचार बंधन अर्थात् विचारों में भ्रम तीसरा इच्छाबंधन अर्थात् इच्छाओं में भ्रम पाया जाता है। इन तीनों प्रकार से भ्रमित मानव भ्रम मुक्ति अर्थात् जागृति सुलभता पर्यन्त अव्यवस्था के चक्कर में पीड़ित रहेगा ही। परंपरा स्वयं भ्रमित है। मानव जाति को डूबाने का कार्य लाभोन्मादी अर्थ चिंतन, कामोन्मादी मनोविज्ञान, भोगोन्मादी समाज शास्त्र ने किया है। इसी के पक्ष में संपूर्ण प्रचार तंत्र कार्य करने को मिल रहा हैं। इससे छूटने के लिए ही विकल्प है-आवर्तनशील अर्थचिंतन, व्यवहारवादी समाजशास्त्र और मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान। रासायनिक-भौतिक वस्तुओं एवं उनके क्रियाकलापों को जब मानव व्यवस्था के रूप में देख पाता है तभी आवर्तनशील अर्थचिंतन सहज रूप में समझ में आता है। आवर्तनशीलता का मूल तत्व रासायनिक वैभव की पूरकता, भौतिक वस्तुओं के लिए और भौतिक वस्तुओं की पूरकता, रासायनिक वैभव के लिए अर्पित है ही; इसमें प्रधान तत्व मानव द्वारा इसे समझ लेना ही है।
मानव जो कुछ भी सोचता है उसके मूल में स्वयं समाधानित होने और समृद्घ होने का सूत्र सहज ही विद्यमान रहता है। मानव अस्तित्व सहज प्राकृतिक विधियों को यथावत् समझें यही अध्ययन और अनुसंधान का तात्पर्य है। मानव आदि काल से ही शुभ चाहता है, पर अपने ही विभिन्न आयामों में भटकते रहा है। आदि काल से मानव ने अपनी समझदारी को जितना विकसित किया है वह सब स्वयं की महिमा को अनदेखी करते हुए वस्तुओं का चयन ह्रास विधि से कर पाया जबकि अध्ययन यथा स्थिति में यथावत् हो पाता है।
अस्तित्व सहज वैभव पदार्थ, प्राण, जीवों के रूप में दिखाई पड़ रहा है। ये सब मानव की किसी योजना के बिना ही धरती पर संपन्न हो चुका है। अध्ययन का मूल बिंदु है- यथास्थिति से, संपूर्ण पद्घति के साथ मानव के साथ तालमेल, संबंध और कर्त्तव्यों को पहचानना। अध्ययन जब कभी मानव कर पाता है, यथार्थ विधि से ही, मानव सहज