भौतिकवाद
by A Nagraj
4. विकसित देश उन्हीं को कहते है जिस देश की पूंजी अनेकानेक देशों में व्यापार कार्यों में लगी रहती है और व्यापार पर एकाधिकार पाने का प्रयास जारी रहता है।
5. विकसित देश उन्हीं को कहते है जिस देश में निवास करने वाले लोग तकनीकी और विद्वता का भी व्यापार करते है।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि जो देश अपने लाभोन्मादी व्यापार नीति, सामरिक शक्ति संपन्न राजनीति, सर्वाधिक संग्रहवादी नीति में सफल हो गये है, साथ ही उनकी कोटि में और कोई पहुँच नहीं पा रहे है, उन्हीं को आज विकसित देश कहते है।
ऊपर कही नीतियों और स्वरुप के आधार पर ही विकासशील और अविकसित देश, विकसित देश को अपना आदर्श स्वीकारने के लिए बाध्य हुए है। प्रधान रूप में सभी देशों के लिए युद्घ और व्यापार भी आदर्श होकर रह गए। जबकि युद्घ, शोषण, लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद - ये प्रवृत्तियाँ चाहे राज्य की प्रवृत्ति हो, चाहे किसी व्यक्ति, परिवार, समुदाय की प्रवृत्ति क्यों न हो, ये समाज सरंचना और उसके वैभव को बनाये रखने के लिए सहायक नहीं हो पाए। उक्त पाँचों प्रकार की प्रवृत्तियों में से प्रत्येक प्रवृत्ति शंकाकारक है, यथा व्यापार में शंका सदा लगा रहता है। यह व्यापार के चंगुल में रहने वालों को भी पता हैं। लाभोन्माद, कामोन्माद, भोगोन्माद ये आवेश से ही शुरु होते हैं। आवेश सदा पीड़ादायक होते हैं। चाहे सम्मोहनात्मक आवेश (काम, लोभ, मोह) हो या विरोधात्मक (क्रोध, मद, मत्सर), इन दोनों ही स्थितियों में पीड़ा को देख सकते है।
युद्घ सदा ही शंका, कुशंका, अविश्वास, साम, दाम, दण्ड भेद से अनुप्राणित रहा है। इसमें छल-कपट का प्रयोग होता ही है, दभ-पाखंड फैलाना पड़ता है। ये सब विश्वासघात के द्योतक है। विश्वासघात, वध, विध्वंस से किसी व्यवस्था की स्थापना अभी तक इस धरती पर नहीं हो पाई। दो बड़े विश्व युद्घ इस धरती पर हुए, तीसरे महायुद्घ के लिए तैयारी कर ही चुके है, इस तमाम अतीत को देखने के बाद यही समीक्षा होती है कि शोषण, वध, विध्वंस, विश्वासघात, द्रोह, विद्रोह से कोई सार्वभौम व्यवस्था स्थापित नहीं हो सकती। जबकि अस्तित्व में केवल व्यवस्था ही वर्तमान है। मानव ही अपने भ्रमवश अर्थात् अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, अव्याप्ति दोषों को अपनी कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता वश मोल लिया है। इसी को वरदान मानते हुए विकास की बात की जाती