भौतिकवाद
by A Nagraj
व्यवस्था सर्वसुलभ हो जाती है। यही मानव कुल की महिमा है। इस विधि से युद्घ, शोषण, द्रोह-विद्रोह विहीन सहअस्तित्व सहज समाज रचना और सार्वभौम व्यवस्था मानव कुल के लिए सहज सुलभ होगी।
परस्पर पूरकता क्रम ही आवर्तनशीलता है, मानव जागृति पूर्वक संपूर्णता सहज प्रयोजनों को ध्यान में रखते हुए कार्यक्रमों को पहचानने से अपने आप आवर्तनशील हो जाता है। जैसे धरती का संरक्षण, क्षरण शीलता से मुक्ति दिलाना, उर्वरक से समृद्घ बनाये रखना। यह स्वाभाविक रूप में, जो कुछ भी सुरक्षित धरती पर जितनी हरियाली उत्पन्न होती है, सबको उस धरती पर समा लेने पर उस धरती की उर्वरकता संतुलित रहते हुए किसी न किसी मात्रा में समृद्घ होती हुई देखने को मिलती है। जहाँ तक अनाज को पाते है, वह भी अंततोगत्वा खाद बनकर धरती में समा जाता है। यह स्वयं आवर्तनशीलता का प्रमाण है। यह संबंध श्रम नियोजन विधि से संपन्न होता है। श्रम नियोजन पूर्वक ही मानव धरती की क्षरणशीलता को रोक पाता है। इसके फलस्वरुप धरती में फसल बोने की संभावना और फसल होने की संभावना तथा धरती की उर्वरकता को बनाए रखने में संतुलन की संभावना, यही आवर्तनशीलता का फलन हैं। धरती के संरक्षण से स्वाभाविक रूप में धरती में जो पानी बरसता है, वह अधिकाधिक धरती में समाने का अवसर एवम् परिस्थितियाँ निर्मित हो गई। इससे धरती में समाया हुआ जल धरती के लिए सदा ही उपयोगी होना पाया गया।
जल संरक्षण क्रम में अधिकाधिक जल को एकत्रित कर रख लेना, कृषि के लिए, हरियाली के लिए उपयोगी होना पाया जाता है। उसी के साथ-साथ वातावरण सहज ऊष्मा के प्रभाव से जब धरती से पानी का वाष्पीकरण होता है, वह जितना अधिक होगा, उतना ही अधिक वर्षा होने की संभावना बन पाता है। इसमें यह भी ध्यान देने की बात आती है कि जैसे-जैसे युद्घोन्माद और लाभोन्माद घटता जायेगा वैसे ही क्रम से समुद्र, धरती का वायुमंडल, धरती के भीतर जो खलबली मानव ने उन्मादवश पैदा किये है, वह शनै:-शनै: कम होने की संभावना बनती हैं। अभय सहज मानव परंपरा में युद्घ की आवश्यकता शनै:-शनै: कम होते हुए कुछ समय के अनंतर शून्य हो जाता है। अर्थात् नियंत्रित हो जाता है अर्थात् जागृति सहज नियंत्रण प्रभावशील होता है। दूसरा, अपव्यय समाप्त होने लगता है। सद् व्यय, सार्थकता, सुरक्षा अवतरित होने लगती है। फलस्वरुप