भौतिकवाद

by A Nagraj

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जागृति जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के क्रम में है। यह व्यवहार में स्पष्ट होता है। सर्व प्रथम चयन और आस्वादन में जागृति, दूसरा विचार (विश्लेषण) और तुलन में जागृति। तीसरा चिंतन और चित्रण में जागृति। चौथा बोध और संकल्प में जागृति। पाँचवें चरण में परम तृप्ति की अनुभूति और उसका प्रामाणिकता। मानवीयता व्यवहार में प्रमाणित होना ही जीवन जागृति सहज अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन है। यही दूसरी भाषा में जागृति सहज अनुभव बल, विचार शैली तथा जीने की कला है। यही मानव परंपरा की मूलपूंजी है। जागृति सहज वैभव ही मानवीयतापूर्ण परंपरा का वैभव है। इसलिए मानव परंपरा का जागृत होना, जागृत रहना सर्वोपरि एवं अनिवार्य है। यही जागृति प्रबुद्घता, संप्रभुता और प्रभुसत्ता के रूप में वैभवित रहना ही त्रिकालाबाध सत्य है।

आवर्तनशील अर्थव्यवस्था, व्यवहारवादी समाज चेतना और मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान ही संयुक्त रूप में मानवीयतापूर्ण संस्कृति, सभ्यता, व्यवस्था, विधि, प्रक्रिया, व्यवसाय, व्यवहार, विचार और अनुभव सहित अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में जीने की कला को अध्ययन रूप में प्रमाणित करता है। इसका मूल ज्ञान ही जीवन ज्ञान है। मूल दर्शन ही सहअस्तित्व दर्शन है। मूल ज्ञान संबंध में संक्षिप्त पहचान प्रस्तुत किया गया। इसके पहले “परमाणु में विकास” अध्याय में विशद् विश्लेषण हुआ और भी जहाँ-जहाँ, जैसा-जैसा, जितनी-जितनी आवश्यकता पड़ी, जीवन अध्ययनगम्य होता ही रहेगा।

अस्तित्व दर्शन - के संबंध में मानव सहित अस्तित्व, सत्ता में संपृक्त प्रकृति ही हैं। जड़-चैतन्य प्रकृति सदा ही स्थिति-गति सहज सहअस्तित्व के रूप में होना अध्ययन क्रम में पहले “अस्तित्व” अध्याय में प्रस्तुत किया है। इसके बाद भी अस्तित्व सहज अध्ययन, दर्शन के रूप में आवश्यकतानुसार प्रस्तुत होता ही रहेगा। जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन सहज अभिव्यक्ति के रूप में मानवीयतापूर्ण आचरण और उसके वैभव को स्पष्ट कर दिया गया है। अस्तु, अस्तित्व दर्शन जीवन ज्ञान और मानवीयतापूर्ण आचरण सहज रूप में ही मानव परंपरा अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में वैभवित होने की संभावना को स्पष्ट किया गया है।