भौतिकवाद
by A Nagraj
(4) बोध और ऋतंभरा (संकल्प) :-
जीवन सहज और दो क्रियाएँ बोध और संकल्प के रूप में पहचानी जाती है। यह बुद्घि में होने वाला वैभव है। बोध जो कुछ भी होता है न्याय, धर्म, सत्य का ही होता है। न्याय सहज बोध का प्रमाण परिवार मानव के रूप में ही देखने को मिल चुका है। धर्म बोध का तात्पर्य है- सार्वभौम व्यवस्था का बोध होता है। सर्वतोमुखी समाधान को प्रमाणित करने के लिए संकल्पित होना। कल्पनाशीलता = न्याय सहज रूप में सबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह कार्य में पहली राहत, पहला सुख जिसकी निरंतरता की संभावना उदय हो चुकी रहती हैं। सर्वतोमुखी समाधान के रूप में संपूर्ण कल्पनाशीलता नित्य सुख के रूप में परिणित हो जाता है या जागृत हो जाता है। यही कल्पनाशीलता का तृप्ति बिंदु है। सर्वतोमुखी समाधान पूर्वक ही व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण व्यवहार में मिल पाता है। यही सुख की निरंतरता की गवाही है। यह भी गवाही है कि व्यवस्था की ही निरंतरता होती है, अव्यवस्था का नहीं। अव्यवस्था का परिवर्तन भावी है क्योंकि अस्तित्व में विकास निश्चित है, इससे व्यवस्था निश्चित है। इसलिए अव्यवस्था का परिवर्तन भावी है, यही नियति है। अनुभव बोध सदा सुखद होता है। परम आनंद सहज बोध में बनी ही रहती है। इसकी सार्थक प्रक्रिया समाधान ही है जो बुद्घि सहज संकल्प के रूप में वर्तमान रहता है।
(5) अनुभव और प्रामाणिकता :-
पाँचवी दो क्रियाएँ जीवन में अनुभव और प्रामाणिकता के रूप में संपन्न होती हैं। मानव संचेतना सहज तृप्ति, उसकी निरंतरता के रूप में अनुभव प्रमाणित होता है। मानव संचेतना जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने का कार्यकलाप है। इसका तृप्ति बिंदु समाधान है। इसका बोध ही धर्म है। जो परम संतोष और आनंद स्वरुप ऐसे जानने, मानने, पहचानने और निर्वाह करने का तृप्ति बिंदु ही अनुभव की वस्तु है। एक बार किसी एक मुहूर्त में अनुभव गम्य होने के उपरान्त अनुभव मूलक विधि से, जीवन व्यक्त होना पाया जाता है। इसके पहले अनुभव गामी विधि से अर्थात् अज्ञात को ज्ञात करने एवं अप्राप्त को प्राप्त करने के क्रम में जागृति होती है। इसी जागृति क्रम में कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता प्रयोग होते ही रहता आया है।