भौतिकवाद

by A Nagraj

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Page 221

मानव सहज शरीर यात्रा, जीवन और शरीर के संयुक्त यात्रा के प्रयोजनों को देखने पर पता लगता है कि जागृति अर्थात् जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना, उसकी तृप्ति और निरंतरता का होना ही है। यही प्रामाणिकता, स्वानुशासन, सर्वतोमुखी समाधान, समृद्घि, अभय और सहअस्तित्व के रूप में प्रमाणित होना ही है। यही व्यवसाय, व्यवहार, समाज व्यवस्था, विचार और अनुभव सहज रूप में वांछित, आवश्यकीय चिरप्रतीक्षित घटना है अथवा उपलब्धि है। उल्लेखनीय बात यही है कि अब संपूर्ण सौभाग्य, मानव के लिए करतलगत होना संभव हो गया है। इस क्रम में प्रत्येक मानव, प्रत्येक परिवार, संपूर्ण मानव के तन, मन, धन रुपी अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा सहज रूप में होगी। फलस्वरुप पर्यावरणीय नैसर्गिक समस्या, प्रदूषण समस्या, न्याय समस्या, सुरक्षा समस्या, उत्पादन समस्या, विनिमय समस्या, शिक्षा-संस्कार समस्या और स्वास्थ्य-संयम समस्याएँ दूर होंगी।

मानव जीवन सहज न्याय-अन्याय, धर्म-अर्धम, सत्य-असत्यात्मक तुलन पूर्वक न्याय, धर्म, सत्य दृष्टि से कार्य करने के क्रम में मानवीय आचरण, अखण्ड न्याय सहज वैभव मानव कुल में सार्थक होगा। सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी, धर्म सहज वैभव, सर्वतोमुखी समाधान सहज विधि से सार्थक होगा। जागृति, प्रमाणिकता, स्वानुशासन सत्य सहज वैभव मानव में, से, के लिए सुलभ रहेगा ही।

(3) चिंतन और चित्रण :-

न्याय सहज वैभव का दृष्टा जीवन ही होता है। जीवनगत चित्त में ही न्याय साक्षात्कार होता है। यह जीवन में होने वाली छठवीं क्रिया चिंतन है। इसके पहले चयन और आस्वादन, विश्लेषण और तुलन क्रियाओं को, प्रत्येक भ्रमित मानव में इन्द्रिय सन्निकर्ष पूर्वक संपन्न होना स्पष्ट किया जा चुका है। चित्त में ही चिंतन और चित्रण कार्य संपन्न होता है। चिंतन में ही (न्याय-धर्म-सत्य रूपी) प्रयोजनों को अनुभव रूप में पहचाना जाता है (अर्थात साक्षात्कार करता है)। चिंतन विधि से न्याय के प्रयोजन को मनुष्य पहचानता है, जीवन पहचानता है। यह न्याय-धर्म-सत्य साक्षात्कार विधि से ही संभव है| फलस्वरुप अखण्ड समाज की कल्पना और परिवार मानव की कल्पना सहज स्पष्ट होता है। फलस्वरुप व्यवहार में प्रमाणित होना आवश्यक हो जाता है । इस प्रकार चिंतन अर्थात साक्षात्कार में प्रयोजनों का पहचान कल्पनाशीलता के संयोग से ही हो पाता है।