भौतिकवाद
by A Nagraj
अभी तक मानव का कार्यकलाप अनिश्चित है। मानव शरीर भी अवयवों के संतुलित रूप में ही प्रकाशित है। इस प्रकार प्राण कोषाओं से सभी वनस्पतियाँ जीव और मानव शरीर की रचनाएँ होते हुए समझ में आती हैं।
जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में जीने वाले जीव एवम् मानव शरीर में सप्त धातुएँ देखने को मिलती हैं। सप्त धातुओं के सर्वोच्च संतुलित रचना मानव शरीर ही है। स्वेदज व असमृद्घ मेधस युक्त रचनाओं को जीवन चलाता नहीं है अथवा वे चलाने योग्य नहीं होतें। उनमें सप्त धातुएँ देखने को नहीं मिलती हैं। वे रचनाएँ प्राण कोषाओं से ही रचित रहती हैं। झाड़ व पौधे सभी प्राण कोषाओं की ही रचना होते हुए इनमें सप्त धातु नहीं होते। इन्हीं सब प्रमाणों के साथ जीवन और शरीर का संयोग उसी शरीर से संयोगित हो पाता है, जिस शरीर की संरचना में सप्त धातुएँ अंग अवयवों के संतुलन के अर्थ से रचित रहते है तथा समृद्घ मेधस व समृद्घि पूर्ण मेधस की रचना संपन्न होती हैं। ऐसे ही शरीर को जीवन संचालित करता हुआ देखने को मिलता है। इस क्रम में जो भी प्राण कोषाएँ देखने को मिलती है, वे सब विधिवत् रासायनिक वैभव के रूप में दिखते हैं। इसके साथ कृत्रिमता नहीं हो पाती। जो कुछ भी कृत्रिमता का आकार दे पाना मानव से बन जाता है वह सब पदार्थावस्था सहज वस्तुओं के रूप में ही देखने को मिलता है। रासायनिक क्रिया प्राकृतिक ही होती है, कृत्रिम होती नहीं है इसलिए प्राण कोषाएँ प्राकृतिक ही होती है, कृत्रिम नहीं होती है। प्राण कोषाओं से रचित रचनायें स्वाभाविक रूप में प्राकृतिक है, कृत्रिम नहीं।
प्रकृति का तात्पर्य - पहले से ही क्रिया के रूप में रहता है। इसी का नाम प्रकृति है। पहले से जो क्रिया और वस्तु, गति और स्थिति रहते आया, वैसी क्रिया को घटाना (घटित करना) प्राकृतिक ही हुआ। मनुष्य प्रकृति सहज कई घटनाओं को स्वयं भी घटित करा सकता है। इसलिए इसे कृत्रिमता का नाम देना चाहते हैं। वह इसलिए सार्थक नहीं हो पाता है कि वह पहले से ही बना रहता है। ऐसा अभी प्राण कोषाओं के संबंध में कहा जा चुका है। इसी के साथ जीवन को कृत्रिम प्रक्रिया से घटित किया नहीं जा सकता। जीवन जब कभी भी घटित होगा, वह परमाणु ही गठनपूर्णता पूर्वक ही प्रमाणित हो पाता है।