भौतिकवाद
by A Nagraj
जो प्राणावस्था की रचना में अर्पित हुए है अथवा प्राणावस्था की रचना के रूप में जितनी भी मात्रा रसायनों की बनी रहती है, उन सबका समान रूप में गुण और मात्रा रसायनिक द्रव्य में ही हो पाता है। रासायनिक वैभव में सभी वस्तुएँ जो समाहित रहते है, वे सब अन्य द्रव्यों के अनुकूल-प्रतिकूलताएँ परिवर्ती रूप में दिखते हैं। मूलत: यह भौतिक वस्तुएँ हैं। जैसे दूध परवर्ती रस है। मूलत: यह भौतिक वस्तु ही है। इसी प्रकार पानी, इसी प्रकार अम्ल-क्षार आदि पुष्टि, पुष्टितत्व, पुष्टि रस, ये सब के सब मूलत: वस्तुएँ रासायनिक क्रियाकलापों में अपने को व्यक्त करते समय में गेहूँ, चावल, दाल, फल आदि रुपों में दिखते है। क्षार, अम्ल और पुष्टि रसों के निश्चित मात्रात्मक संयोग से जैसे - खट्टा, मीठा, तीखा आदि रूपों में मानव आस्वादन करता है। अस्तु, रसायन और प्राणकोषाओं से रचित सभी रचनाएँ प्राण कोषाओं के समान ही होते है, रचनाएँ भले विविध प्रकार की क्यों न हो।
इस क्रम में निरीक्षण कर निर्णय लेने का मूल मुद्दा यही है कि प्राण कोषा के मौलिक स्वरुप को समझना उससे रचित सभी रचनाओं को, उससे अधिक हुआ या नहीं हुआ इस बात का परीक्षण करना है। इस प्रक्रिया में यह पाया गया कि प्रत्येक प्राण कोषा में मौलिक अभिव्यक्ति, जो पदार्थ अवस्था में चिन्हित रूप में नहीं थी, वह श्वसन क्रिया और प्रजनन क्रिया है। यही प्राण कोषा का मौलिक कार्य है। प्राण कोषा से रचित यही कार्य देखने को मिलता है । रचना कार्य, रचना की प्रक्रिया, पदार्थावस्था में संपन्न हो चुकी है, जिसको मानव ने देखा। इस प्रकार पदार्थ अवस्था से अधिक कोई आचरण, प्राणावस्था में व्यक्त हुआ, वह है - श्वसन क्रिया और प्रजनन क्रिया। अस्तु, मूलत: प्राणकोषाएँ समान है।
मानव यह देख पा रहा है कि धरती पर प्राणावस्था की रचनाएँ अन्न-वनस्पतियाँ बड़े-बड़े झाड़, पौधे, लता, गुल्म आदि रुपों में दिखाई पड़ रही है। इसके अनंतर जीवावस्था में जितनी भी शरीर रचनाएँ है, वे सब प्राण कोषाओं से रचित हुई है और मानव शरीर भी इसी भाँति प्राणकोषाओं से रचित रचनाएँ हैं। मानव शरीर भी अपने स्वरुप में प्राण कोषा से अधिक नहीं होता। यह प्राणकोषा के समान ही होता है। प्राणकोषा में श्वसन क्रिया मौलिक है और रचनाओं के आधार पर अर्थात् जिन-जिन रचनाओं में भागीदारी करना है अथवा निर्वाह करना है वे-वे रचना विधि सूत्र, प्राण कोषाओं में समाए रहते हैं।