भौतिकवाद

by A Nagraj

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2. ये विभक्त होते नहीं।

3. ये विभक्त है नहीं।

4. इसे विभक्त किया नहीं जा सकता।

इस प्रकार विकास विधि संपन्न विज्ञान, वैज्ञानिक नियमों में, से, यह भी एक प्रमुख नियम है कि बल और शक्ति अविभाज्य है। बल ही गुणी एवं शक्ति ही गुण है।

इस आधार पर हर शक्ति के मूल में बल होना आवश्यक है। इसलिए शक्ति और बल के सहअस्तित्व को स्वीकारते हुए सोचने पर अस्तित्व वैभव को समझना संभव हो जाता है। शून्य आकर्षण की स्थिति में प्रत्येक एक अपने स्थिति-गति के अनुसार, अक्षुण्ण हो जाता है। यह स्थिति-गति की निरंतरता सामरस्यता सिद्धांत है। इसे इस धरती, सूर्य, ग्रह-गोलों की स्थितियों को देखते हुए समझ सकते हैं। यह धरती अपनी स्थिति में, गति में अक्षुण्ण है। इसीलिए इसका स्वभाव गति में होना प्रमाणित है। इन्हीं ग्रह-गोल, नक्षत्रों को देखने पर यह भी पता लगता है कि यह सब शून्य आकर्षण में हैं। शून्य आकर्षण में होने का फल यही है कि स्वभाव गति रूप में, स्वभाव गति स्थिति अक्षुण्ण रहे आया। शून्य आकर्षण में होना, स्वभाव गति प्रतिष्ठा है, इसका प्रमाण यह धरती स्वयं प्रकाशित है। इसी क्रम में और तथ्य मिलता है कि शून्य आकर्षण की स्थिति में, प्रत्येक ग्रह गोल में समाहित संपूर्ण वस्तुएँ, उसी ग्रह गोल के वातावरण सीमा में ही रहते है, चाहे वे वस्तुएँ स्वभाव गति में हो या आवेशित गति में। इसका प्रमाण सूर्य को देखने पर मिलता है। सूर्य में संपूर्ण वस्तुएँ विरल अवस्था में होना दिखाई पड़ता है। कोई ग्रह-गोल में स्थित वस्तु, यदि आवेशित हो सकता है, तो सूर्य में वस्तु जितना आवेशित है, उतना हो सकता है। इसके बावजूद सूर्य अपनी संपूर्ण मात्रा (संपूर्ण वस्तु) सहित ही कार्यरत है।

स्वयं में ग्रह-गोलों में निहित वस्तुओं के आवेशित होने के कारणों की ओर ध्यान देंगे। प्रत्येक ग्रह-गोल में, जैसे इस धरती में किसी तादाद तक विकिरणीय द्रव्यों के रहते, सभी अवस्थाओं का संतुलित रहना पाया जा रहा है। संतुलन का तात्पर्य सभी अवस्थाओं की वर्तमानता से है, अथवा चारों अवस्थाओं को वर्तमान होने से है और इनके अंतरसंबंधों में सहअस्तित्वरुपी प्रमाण के वैभव से हैं। यह भी मानव के सम्मुख स्पष्ट है कि चरम तप्त अर्थात् सर्वाधिक तप्त स्थिति में सूर्य की गणना की जा चुकी