भौतिकवाद
by A Nagraj
तृप्ति, स्वाभाविक रूप में, अस्तित्व की अभिव्यक्ति का स्वरुप है। जागृत मानव परंपरा में इसका फलन, व्यक्तित्व एवं प्रतिभा के संतुलन में सर्वमान्य है। वह-
1. सर्वतोमुखी समाधान = समझदारी के आधार पर
2. समृद्घि = समझदार परिवार में आवश्यकता से अधिक उत्पादन पूर्वक
3. अभय = अखण्ड समाज में मानवीय संस्कृति-सभ्यता, विधि-व्यवस्था पूर्वक
4. सहअस्तित्व = सार्वभौम व्यवस्था, दस-सोपानीय रूप में भागीदारी रूप में।
इस प्रकार इन तथ्यों को प्रमाणित करने के क्रम में मानव का बहुआयामों से सूत्रित होना और व्याख्यायित होना ही मानवीयता पूर्ण वांङ्गमय है। फलस्वरुप योजना, कार्य योजना पूर्वक प्रमाण परंपरा को स्थापित, संरक्षित कर अक्षुण्णता को देख पायेंगे। यही मानव परपंरा सहज मौलिकता अर्थात् वैभव सहित जीने की परंपरा के रूप में जीने का स्वरुप उपाय समीचीन है।
मानव सहज विधि से जीने का स्वरुप मानव संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था के रूप में ही सार्थक होना पाया जाता है। इन्हीं वास्तविकताओं के आधार पर धर्म (व्यवस्था) और राज्य (व्यवस्था की गति) प्रमाणित होना ही इसका वैभव है। यही जागृति सहज वैभव को सार्थक रूप देना ही विकल्प का उद्देश्य है।
4) धर्म और राज्य में अर्न्तसंबंध
(1) धर्म गद्दी की असफलता :-
शक्ति केन्द्रित शासन रुपी राज्य और अनुग्रह, वरदान, मोक्ष जैसे आश्वासन रुपी धर्म; अनुग्रह, वरदान, मोक्ष पाने के लिए तमाम प्रकार की साधनाएँ, तप, अभ्यास जैसी बातें धर्म के रूप में देखने को मिली। हर परंपरा में जो साधना किया, उसी परंपरा का सम्मान बढ़ते गया। परंपरा में साधना का तात्पर्य समुदाय परंपरा में प्रचलित साधना के उपक्रम से है। प्रत्येक साधक जो अथक परिश्रम से तप और अभ्यास किया, जितना समय भी