भौतिकवाद
by A Nagraj
रहे अथवा सम्मोहित होते रहे है। इस प्रकार से वंशों की प्रजातियाँ बदलने और बदलने का उद्देश्य दोनों स्पष्ट हो जाता है।
भ्रम परंपरा में, साधना विधि में, सिद्घों की पहचान में, सिद्घ स्थलों की पहचान में :-
मानव शरीर को चलाते हुए, जागृति पूर्वक चलाने में अधिकांश लोगों को जो विपदा है, वह परंपरा की देन के रूप में ही विश्लेषित होती है। जीवन जागृति पूर्वक भ्रम मुक्त होना भी किसी बिरले मानव में प्रमाणित होता है और हुआ है। परंपराओं के अनुसार विविधता की पंचायत, उसमें से निश्चित पद्घति, जिसमें जीवन जागृत हो सकता है, उन सभी पद्घतियों में सर्वाधिक अनिश्चयता बनी रहती है। इसके बावजूद बहुत सारे मेधावी अपने को साधना क्रम में अर्पित करते हैं। इसमें मूलत: ऐसी अनिश्चयता, अस्पष्टता रहते हुए भी, साधना में अर्पित रहने का मूल कारण मूलत: मानव गलत है और परंपरा ठीक है- इसी आस्था के साथ मानव अर्पित होता है। इसे साधना, अभ्यास, सत्य की खोज आदि नाम दिया जाता है। हजारों मेधावी सदा ही इसमें अर्पित होते रहते है, यह भी देखने को मिल रहा है। इसमें यदि परंपरा ठीक होती तो हर व्यक्ति को सत्य, आत्मा, ईश्वर, कल्याण के नाम पर जो कुछ बताना चाह रहे है, वह सब एक उद्देश्य के रूप में रहता हुआ देखने को मिल रहा है यह अध्ययन की कसौटी में सही नहीं उतरा। इसलिए मानव; तर्क संगत विधि न होने से तृप्त नहीं हुआ और मान्यताओं, उपदेशों पर आधारित विधि में, स्वयं को अर्पित कर देता है। अभी तक जितने लोग अर्पित हुए उन सबके परिवारों की, न्याय और व्यवसाय रुपी जिम्मेदारियाँ क्षतिग्रस्त हुई हैं। इसके बावजूद आज भी सत्य और सत्यता के प्रति आदमी अपने को अर्पित मानता है। इसमें सफल मान लेने के बाद भी उसकी कोई रूप रेखा, प्रमाण के रूप में अध्ययन विधि सम्मुख नहीं हो पाती है।
इस बीच जिसको सामान्य जनमानस मान लेता है कि ये सफल हो गए है, ऐसी लोक मान्यता के आधार पर पहचानते हैं। इस स्थिति में ऐसा साधक “सिद्घ हो गया हूँ”- ऐसा मान भी लेता है क्योंकि लोग मान रहे हैं। इसी स्थिति को लोक मानस में ऐसा मानना पाया गया कि ऐसा सिद्घ पुरुष जो कहता है, चाहे श्राप हो, चाहे अनुग्रह हो, वह साकार हो जाएगा। ऐसा भय और प्रलोभन के मारे यह मान्यता सर्वाधिक