भौतिकवाद
by A Nagraj
परिवर्तन होने के लिए, जीव शरीर रचना सूत्र में ही पहले से स्थित अनुकूल भ्रूण संवर्धन आशय (गर्भाशय या गर्भ जैसी परिस्थिति) में पलना आवश्यक रहता ही है। यदि पूछा जाय कि यह क्यों बदलता है? तो इसका उत्तर है- “सामन्जस्य रूप में।” ऐसे सामन्जस्य का आधार रचना क्रम में, जीवन जागृति क्रम में, मानव शरीर रचना के उपरान्त ही प्रमाणित होना पाया जाता है।
जीवन जागृति एक नियति क्रम सहज प्रणाली है, क्योंकि अस्तित्व स्वयं चारों अवस्थाओं के रूप में प्रधानत: जागृत मानव परंपरा सहित व्यक्त है। यही इसका स्वाभाविक स्वरुप है। सह-अस्तिव का स्वरुप भी यही है। सत्ता में संपृक्त प्रकृति के परिपूर्ण वैभव को देखा जाय, समझा जाय, तभी भी इतने ही स्वरुप दिखाई पड़ते हैं। अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन विधि से सोचने पर स्पष्ट होता है कि-
1. विकास क्रमिक है।
2. विकास, जीवन पद में संक्रमण है।
3. विकास क्रम में भौतिक-रासायनिक वैभव एक मंजिल है।
4. अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व है, इस आधार पर जीवन और शरीर में सहअस्तित्व संबंध वर्तमान रहता ही है।
इस आधार पर जीवन अपने जागृति क्रम विधि से प्रकाशित होता है। शरीर में जितनी भी अतृप्ति का प्रकाशन रहता है, ऐसी घटना ही रचना सूत्र में अर्थात् शरीर रचना सूत्र में भी परिवर्तन के लिए एक आधार बनता हैं। उसके साथ-साथ रचना सूत्र और विधि में परिवर्तन की स्व-स्फूर्त प्रक्रिया भी रहती है। इन दोनों के योगफल में वंशानुषंगीयता की स्थिरता न होकर, अस्थिरता को व्यक्त करने के रूप में परंपरा की प्रगति सहज, विविध शरीर तैयार होते आए। पुन: उसकी परंपरा बनती गई। परंपरा के रूप में वंश निरंतर है ही। जीवन उन सभी शरीरों में, जीने की आशा को व्यक्त करते आया। अंततोगत्वा मानव शरीर जैसे ही अवतरित हुआ, उसके साथ ही वंशानुषंगीय अभिव्यक्ति को नकार लिया, बहुआयामी अभिव्यक्ति को स्वीकार किया। इस मानव शरीर के अवतरण के पहले प्रत्येक प्रजाति की वंशाषुगीयता को जीवन स्वीकारते रहा अथवा स्वीकार करना पड़ता रहा। ऐसी स्थिति में उन शरीरों को चलाने वाले जीवनों के साथ घटती रही, चलाते