भौतिकवाद
by A Nagraj
इस प्रकार बीसवीं शताब्दी में संग्रह करने वालों की संख्या बढ़ी। इनमें से जो राजगद्दी और व्यापार के द्वारा संग्रह करने में अभयस्त थे, वे भी इस प्रवाह के साथ है ही। इस क्रम में हर समुदाय राजगद्दी और धर्मगद्दी की निश्चित पहचान अपने-अपने रूप में रहती आयी। इन दोनों के बीच जो एकरुपता का सूत्र राजयुग अथवा दासयुग के प्रारंभ में स्थापित हुआ वह शनै:-शनै: परिवर्तित हो गया। आज राज्य और धर्म दोनों अलग-अलग पहचानने में आ गए हैं। इस परिवर्तन के लिए मानव मानस को जो सूत्र मिला है वह सब “संग्रहवादी प्रवृत्ति” है । आज तकनीकी और प्रौद्योगिकी की प्रधान भूमिका के कारण अत्याधिक उत्पादन हुआ है। अब यह भी सुनने में आ रहा है कि धर्म का लेन-देन या संबंध राज्य के साथ नहीं है। जबकि धार्मिक राजनीति के आरंभिक काल से ही, धर्म और राज्य एक-दूसरे के पूरक रहने की अपेक्षा बनी रही है अथवा ऐसा मान लिया गया था। दोनों में एकात्म संबंध माना गया था। विज्ञान युग के अनंतर आर्थिक राजनीति प्रभावशील हुई। आर्थिक राजनीति की पराकाष्ठा में ऐसी आवाज गूंजने लगी कि धर्म और राज्य के बीच संबंध नहीं है।
इस सदी में सन् 1917 में साम्यवादी विचार के अनुसार धर्म विहीन राज्य व्यवस्था स्थापित हुई। पर सन् 1990 से साम्यवाद का उन्मूलन आरंभ हो गया। वहाँ पहले जैसे ही विविध धार्मिक आस्थाएँ पनपती हुई देखने को मिल रही हैं। इससे यह भी ज्ञानोदय होता है कि जब मानव अपने में सांत्वना एवं शांति चाहता है, प्रकारान्तर से धर्म का ही नाम याद आता है और आस्था का सूत्र ही उसका एकमात्र संबल होता है। आस्था की प्रेरणा आदर्शवाद से ही जनमानस में आई है। भय की तुलना में आस्था से आज भी राहत सी मिलती है। इसी आधार पर आस्था के केन्द्र राजा, गुरु और ईश्वर रहे। गुरु और राजा का सम्मान होते आया। आज की स्थिति में राजकाज का ढंग देखकर जनमानस की आस्था इससे टूटती गई है। आस्था का आधार है रहस्यमय धर्म तथा रुचि के लिए उन्माद त्रय (लाभोन्माद, कामोन्माद, भोगोन्माद)।
वर्तमान समय में व्यापारी और अधिकारी समय अनुसार बदलते रहते हैं। कभी व्यापारियों के चंगुल में अधिकारी तो कभी अधिकारियों के चंगुल में व्यापारी-इस तालमेल को बैठाने के कार्यक्रम में लगे दिखाई देते हैं। संपूर्ण अधिकारी समुदाय इस समय प्रधानत: तीन भागों में बंटे दिखाई पड़ते है-