भौतिकवाद
by A Nagraj
भीगा, डूबा व घिरा हुआ दिखाई पड़ता है। भीगा हुआ से सत्ता का पारगामी होना प्रमाणित है। यही प्रमाण, वस्तु में ऊर्जा संपन्नता और बल संपन्नता के रूप में प्रमाणित है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु का बल संपन्न रहना, मानव को समझ में आता है। सत्ता अथवा चेतना का तात्पर्य साम्य ऊर्जा है, प्रत्येक वस्तु घिरा हुआ, डूबा हुआ, भीगा हुआ है। यह स्थिति-गति प्रत्येक व्यक्ति को दिखाई पड़ता है। इस प्रकार चेतना और ब्रह्म नाम से भी इस वस्तु (वास्तविकता) को इंगित कराया है। इस प्रकार चेतना और ब्रह्म, जिसको हम अव्यक्त मानते रहे है, यह अव्यक्त नहीं है, नित्य व्यक्त है और नित्य वर्तमान हैं। ऐसी चेतना अथवा ब्रह्म व्यापक है। पहले भी व्यापक नाम दिया गया था। व्यापकता के अर्थ में जैसा भी समझे हों, जो भी समझे हों, अभी वर्तमान में इस प्रकार समझ सकते है कि सत्तामयता कितना फैला हुआ है इसका कोई मापदंड मानव सहज कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता के योग फल में तैयार नहीं हो पाता है। अभी तक नहीं हो पाया है। इसलिए इसको व्यापक नाम दे दिया गया अथवा इसका नामकरण किए व्यापक। सत्ता में ही अनन्त इकाईयाँ समाई हुई है। जितनी भी संख्या में मानव देखें, सभी सत्ता में डूबे एवं घिरे हुए दिखाई पड़ते है। ऐसी दिखने वाली इकाईयों को कितनी भी गिनें, पर और भी गिनने के लिए शेष रहता ही है। इसीलिए इकाईयों को “अनंत” नाम दिया गया है।
यह भी इससे स्पष्ट हुआ है कि मानव ही नापने, तौलने और गिनने का कार्य करता है। यह मानव को दृष्टा पद में होने का सामान्य लक्षण है। आवश्यकता और आवश्यकता की कल्पना से अधिक नापना, तौलना संभव नहीं है। इससे यह भी समझ में आता है कि मानव सहज आवश्यकताएँ सीमित हैं। संभावना अधिक है। इस तथ्य को सामने रखकर देखें। “आवश्यकताएँ अनंत है, साधन सीमित है”- ऐसा जो वर्तमान अर्थशास्त्र में पढ़ाया जा रहा है- यह कहाँ तक सत्य है, कहाँ तक ये सच्चाई है, वह भी समझ में आवेगा। अस्तु, अस्तित्व नित्य वर्तमान है। सत्ता में संपृक्त प्रकृति में से चैतन्य प्रकृति ही जीवन है। जीवन में ही संचेतना प्रमाणित होती है। संचेतना का प्रमाण मानव में जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के रूप में है। यह प्रकारान्तर से हर व्यक्ति में प्रमाणित है। जीवन चैतन्य पद का वैभव है। संचेतना, यह जागृत जीवन सहज अभिव्यक्ति है। इसकी सार्थकता, पूर्णता के अर्थ में- जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होती है। अस्तु, परार्थ व परमार्थिक विधि से क्रियापूर्णता