भौतिकवाद
by A Nagraj
3. जीवों को अलग करने की कल्पना करें, उस स्थिति में अनेक प्रकार के रोग और उपद्रव होंगे, वनस्पतियों को नष्ट करने वाले, मानव को रोगी बनाने वाले तत्व निर्मित हो जावेंगे।
4. मानव को अलग करने की कल्पना देखें, तब अस्तित्व में दृष्टा पद का वैभव इस धरती पर दिखेगा नहीं।
सर्वमंगल, सर्वशुभ और समग्र अभिव्यक्ति का संयोग ही अथवा सज जाना ही समग्र घटना है । ऐसी घटना संपन्न इस धरती में “मानव ही अनुभवपूर्वक दृष्टा है।” दृष्टा पद को समृद्घ कर पाना ही जागृति है। जागृतिपूर्वक ही मानव परंपरा व्यवस्था है और यह व्यवस्था के रूप में वैभवित हो पाता है। इसीलिए मानव परंपरा को जागृत होने की आवश्यकता है, न कि किसी अवस्था को घटाने की। किसी अवस्था को घटाने पर सर्वशुभ की कल्पना नहीं हो पाती, इसलिए मानव का सहज वैभव, जागृति में ही है। मानव परंपरा के जागृत होने के लिए आवश्यकीय प्रेरणा, समीचीन हो चुकी हैं। उसमें से एक भाग यह “समाधानात्मक भौतिकवाद” है।
जागृति पूर्वक ही मानव, चेतना (ईश्वर), संचेतना, चैतन्य वस्तुओं को पहचान पाता है तथा जानता है, मानता है और उसके तत्व बिंदु को प्रमाणित करता है। मूलत: चेतना में संचेतना, चैतन्य, भौतिक-रासायनिक वस्तुएँ अविभाज्य वर्तमान हैं। अविभाज्यता का मूल तत्व चेतना (सत्ता) में संपूर्ण प्रकृति का निरंतर होना ही हैं। सत्तामयता ही चेतना के नाम से ख्यात है। चेतना को परमात्मा, ईश्वर, बह्म, ज्ञान, व्यापक, सत्य आदि नामों से भी इंगित करना चाहते रहे हैं। ब्रह्म को अव्यक्त बताने के लिए किया गया अथवा चेतना को अव्यक्त समझाने के लिए किया गया सारा प्रयास और वांङ्गमय, चेतना और ब्रह्मवादी परंपराओं में भ्रम को निर्मित किया। जबकि हर परस्परता के मध्य सत्ता ही देखने को मिला। यह सत्ता अस्तित्व सहज रूप में वैसे ही रहा आया है, जैसा यह वर्तमान में है। वर्तमान में सत्ता को देखने पर पता चलता है कि यह सर्वत्र, सर्वदा, विद्यमान है, पारदर्शी और पारगामी है। इसी वस्तु को ब्रह्म, चेतना आदि नाम दे सकते हैं। वर्तमान में हम इन्हीं नामों से सत्तामयता को स्मरण पूर्वक इंगित कराएँगे।
सत्तामयता अथवा सत्ता में ही चैतन्य इकाई (जीवन) और जड़ प्रकृति समाई हुई है अर्थात् संपृक्त हैं। इस मुद्दे को पहले भी स्पष्ट कर चुके हैं। सत्ता में जड़-चैतन्य प्रकृति