भौतिकवाद

by A Nagraj

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सभी अभ्यासी महापुरुष सहमत रहे। इस रहस्यवाद में अध्यात्म का आधार रहा है। इसी मूल आश्वासन के आधार पर ही अनेक लोग ईश्वर कृपा को पाकर अभिभूत अथवा तृप्त होने, समाधिस्थ होने, मौन होने अथवा बोधगम्य होने के लिए निष्ठापूर्वक प्रयत्न भी किये। ऐसे निष्ठावान तपस्वी, ऋषि, यति, सती, सन्त, मौनी महापुरुषों को सामान्य लोग यह भी मान लिये कि उन्हें ईश्वर कृपा हो चुकी। परंपरा में यह तथ्य देखने को मिलते रहा। फिर भी रहस्य ही रहता आया और अभी भी इसी प्रकार देखने को मिलता है।

इस बीच एक दूसरी विचारधारा आई, जिसको भौतिकवाद नाम दिया गया। जिसमें भौतिकता को कार्यकलाप के रूप में द्वंद्वात्मक होना प्रतिपादित किए। उसके मूल में अनिश्चय, अस्थिरता को माना गया। इस प्रकार अस्थिरता एवं अनिश्चयमूलक भौतिकवादी वांङ्गमय मानव को मिला, जो अपने प्रभाव के रूप में तर्क संगत विधि से लाभोन्माद, कामोन्माद, भोगोन्माद के रूप में प्रज्जवलित हुआ।

ईश्वरवाद के अनुसार इन तीनों प्रवृत्तियों को दुखकारी और पाप मूलक बताया गया साथ ही स्वर्ग एवं भोग को स्वीकारा और स्वर्ग-नरक को बन्धन बताया। वहीं भौतिकवाद ने इन्हीं उन्मादों को सर्वोपरि स्वीकार किया। इन्हीं प्रवृत्तियों के समर्थन में राज्य और अर्थ-नीतियों को, प्रक्रियाओं को पद्घतियों को अध्ययन कराया।

इसके आधार पर एक सुविधावादी व्यवस्था की परिकल्पना सामने आई जो भोगवाद का समर्थन ही रहा। सुविधावादी व्यवस्था का विचार भौतिकवाद का प्रसंग हुआ। इसका प्रधान कार्यरुप मानव का संग्रह की ओर प्रवृत्त होना पाया गया है। उल्लेखनीय बात यह प्रमाणित हुई कि संग्रह का तृप्ति बिंदु, किसी भी स्थिति में व किसी भी मात्रा में देखने को नहीं मिला। इस प्रकार भौतिकवाद व्यवहार रूप में संग्रह के चक्कर में फँस गया और आदर्शवाद रहस्यमय ही रह गया। इस प्रकार दोनों विचारधाराओं द्वारा व्यवहार रूप में सार्थक सुन्दर समाधान पूर्ण और सुखद सार्वभौम व्यवस्था हाथ नहीं लगी। आज की रिक्तता यही है। पहले भी यही रिक्तता रही है।

(4) सांस्कृतिक इतिहास

प्रकारान्तर से संस्कृतियों के बारे में यह मान्यता है कि संस्कृति का आधार-