भौतिकवाद

by A Nagraj

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आवश्यकता बनती है। ऐसी अरबों गुना प्रौद्योगिकी के लिए धरती से स्रोत पूरा होना संभव नहीं। इसके लिए यह धरती छोटी पड़ेगी। इससे होने वाले प्रदूषण को भी धरती अपने में समाने की स्थिति में नहीं रहेगी। इसीलिए इस पर पुनर्विचार करना आवश्यक है।

2. सुविधा, संग्रह, भोगवाद व्यवस्था का सूत्र व्याख्या और प्रयोजन का आधार नहीं बन सकता। उक्त दो बिंदुओं में केवल सुविधा की राशि और व्यवस्था की झलक अथवा व्यवस्था की कसौटी मात्र से ही निष्कर्ष निकलता है। इसके अलावा मानव ने धरती के साथ जो अत्याचार किया है, उसके लिए अपराध कार्यों में पारंगत बनाने का धंधा बना रखा है, उसके निराकरण का, उसके समाधान के लिए भी कोई न कोई उपाय चाहिए।

उपाय के रूप में “समाधानात्मक भौतिकवाद” प्रस्तुत है। इस दशक के कार्य रूप के अनुसार सुविधावादी वस्तुएँ जो भोगने के लिए आवश्यक मान ली गई है, उसके लिए जितनी वस्तुओं को धरती से निकालकर उपयोग कर रहे है, उससे भी अधिक वस्तुओं को युद्घ सामग्रियों के रूप में परिणत कर रहे हैं। किसी देश में इस समय जन सुविधा के लिए वस्तुएँ की तादाद कम है, इससे अधिक युद्घ सामग्री के लिए उपयोग करते होंगे। इन स्थितियों पर नजर डालें तब यह पता चलता है कि धरती में स्थित वन, खनिज, साधन अथवा द्रव्य कितने दिन तक पूरा पाते हैं। इन सबसे यह निष्कर्ष हम निकाल सकते है कि दो-एक पीढ़ी तक ही धरती में ये सब द्रव्य पूरे पायेंगे। इससे हमें ज्ञात होता है कि भविष्य की पीढ़ियों के साथ हम कितना अपराध कर रहे है? खिलवाड़ कर रहे है या मदद कर रहे है? इस बात का भी आंकलन आवश्यक है। “नैसर्गिकता के साथ हम क्या करें?” नैसर्गिकता का संतुलन इस धरती के लिए ऋतुमान के रूप में प्राप्त हैं। इसको हर मानव देख पा रहा है। अस्तु, मानव की स्वयं व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी आवश्यक है। इस धरती में ऋतु संतुलन को ध्यान में रखते हुए मानव के लिए जीने की कला, विचार शैली और अनुभव बल को विकसित करना अनिवार्य स्थिति बन चुका है। इसका आधार है “सहअस्तित्ववाद प्रमाणित करना।” सहअस्तित्ववादी विचारों के आधार पर ही अनुभव बल को मानव व्यवहार में प्रमाणित कर सकता है । साथ ही व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी को प्रत्येक मानव व्यवहार