भौतिकवाद

by A Nagraj

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अध्याय - 7

संचेतना, चेतना और चैतन्य

“समाधानात्मक भौतिकवाद” के विचारों का आधार सहअस्तित्व ही है- यह स्पष्ट किया जा चुका हैं। सहअस्तित्व मूलत: अस्तित्व ही है, सहअस्तित्व ही अपने सूत्र में वर्तमान एवं नित्य प्रभावी है और शाश्वत् व्यवस्था के रूप में सहअस्तित्व है। अस्तित्व नित्य वर्तमान है। यही सहअस्तित्व का नित्य वैभव है- यह स्पष्ट होता है। सहअस्तित्व का स्वरुप है- सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति, जो स्वयं पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था के रूप में इसी धरती में स्थित मानव को मानव में, से, के लिए दिखाई पड़ती है। इसमें से किसी अवस्था को घटाकर या बढ़ाकर सहअस्तित्व सहज संपूर्णता, पूर्णता और उसकी निरंतरता की कल्पना भी संभव नहीं है। दर्शन और ज्ञान ही दृष्टापद का प्रमाण है तथा त्व सहित व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी, दृष्टापद सहित वैभव यह संभावना मानव में समीचीन है। इससे अधिक ज्ञान, दर्शन और आचरण की आवश्यकता निर्मित नहीं हो पाती, इस मुद्दे पर बुद्घिवाद के अनुसार इसे कैसे समझा जाय कि और अवस्थाएँ निर्मित होने की आशा करना क्यों बुरा है, इस प्रकार से कुछ अस्पष्ट प्रश्न किये जा सकते हैं।

अस्पष्ट प्रश्न इसीलिए हो जाते है कि मानव की आशा, आकांक्षा और अभिलाषाओं की अंतिम मंजिल ही है सर्वतोमुखी समाधान और प्रामाणिकता। यही जीवन जागृति का प्रमाण हैं। जीवन की अंतिम अभिलाषा जागृति है। मानव की अंतिम अभिलाषा सर्वतोमुखी समाधान और प्रामाणिकता है। समाधान से जागृति, जागृति से समाधान प्रमाणित होना ही मानव परंपरा की सफलता है। यही सफलता मानव व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रकाशन सूत्र है। इस सत्यता को अथवा साक्ष्य को स्पष्ट कर देता है प्रामाणिकता, स्वानुशासन सहज अभिव्यक्ति शीर्ष कोटि की जागृति है। यह भ्रम मुक्ति का प्रमाण है। यह निर्भ्रमता का सहज प्रमाण है। इससे अधिक मानव में कल्पनाशीलता की, विचारशीलता की, इच्छाशीलता की गति और अपेक्षा बनती ही नहीं हैं। इसलिए, इसे अंतिम सार्थक परंपरा में निरंतर वैभव होने योग्य वस्तु