जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
है। सभी पशु संसार, जीव संसार, वनस्पति संसार, पदार्थ संसार के साथ संतुलन पूर्वक व्यवहार कर सकता है उससे जो पूरकता है उसके लिए स्वयं कृतज्ञ होकर उसका उपयोग, सदुपयोग कर सकता है। प्रयोजनशील बन सकता है।
मानव के साथ तो संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति होती है। तृप्ति हमारा वर है, अतृप्ति हमारा वर नहीं है। हर व्यक्ति तृप्त होने के आसार में समाधान, समृद्धि, वर्तमान में विश्वास और व्यवस्था में जीना सहअस्तित्व को प्रमाणित करना ही है। सत्य का स्वरूप इस ढंग से आया अस्तित्व ही परम सत्य है, निरंतर रहने वाली वस्तु अस्तित्व ही है और अस्तित्व, सहअस्तित्व स्वरूप है, सहअस्तित्व ही निरंतर प्रभावशील है। फलस्वरूप विकास व जागृति प्रकट होता है, विकास क्रम होता है। विकसित हो जाते हैं, जीवन्त हो जाते हैं। विकासक्रम में भौतिक-रासायनिक वस्तु के रूप में निरंतर कार्यरत है। जीवन कितनी संख्या होना है इसका निश्चयन भी सहअस्तित्व सहज विधि से आता है भ्रमित मानव क्रम से आता नहीं। अस्तित्व स्वयं अपनी विधि से चारों अवस्थाओं को प्रकाशित कर चुका है। इसमें मानव का कोई योगदान नहीं है। मानव स्वयं को अन्य प्रकृति के साथ पूरक होने के प्रमाण रूप में प्रमाणित कर नहीं पाया बल्कि उल्टे शोषण करता रहा है। शोषण से मानव कैसे सुखी होने की कामना किया, यह सोचने का मुद्दा है। शोषण से सुखी होने के बारे में सब राज्य, सब समुदाय, सब धर्म, अधिकांश परिवार सोचते हैं। जहाँ तक राज्य और समुदाय की मान्यता है शोषण पूर्वक ही सुखी हो सकता है। आज तक यही अंतिम बात है और विज्ञान भी इसका समर्थक है कि संघर्ष और शोषण पूर्वक ही मानव अपने अस्तित्व को बचाये रख सकता है। अस्तित्व से यहाँ मतलब अपनी जाति, समुदाय से है। संघर्ष का मतलब है जिसकी लाठी उसकी भैंस। संघर्ष करना ही विकास माना जाता है। जो देश ज्यादा युद्ध कर सकता है, ज्यादा व्यापार बुद्धि का उपयोग कर पाते हैं, ज्यादा शोषण कर सकता है उसे विकसित देश कहा जाता है। जबकि विकसित देश वही है जो जागृत हो गया है। व्यवस्था में है, समाधानित है, समृद्ध है, अपने में विश्वास करता है, सहअस्तित्व को समझता है।