जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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विचारों (सहअस्तित्व, समृद्धि और समाधान) प्रयोजनों को पूरा करना मानव की जिम्मेदारी है।

समझदारी के बाद जिम्मेदारी आ ही जाती है। जब जिम्मेदारी के पास जाते हैं तो स्वाभाविक रूप में हम परिवार मानव हो जाते हैं, सामाजिक हो जाते हैं। फलस्वरूप हम सार्वभौम होते हुए प्रमाणित होते हैं। इस वैभवशाली परंपरा की आवश्यकता है। आशा के रूप में हर व्यक्ति व्यवस्था चाहता है। आकांक्षा के रूप में भी व्यवस्था चाहता है। हमारे अनुसार इच्छा के रूप में भी व्यवस्था चाहता है किन्तु इच्छा में उसकी वरीयता क्रम नीचे है, इसके ऊपर और बहुत सी चीजें है। इसलिए व्यवस्था की तीव्र इच्छा नहीं हो पाती। फलस्वरूप आदमी समर्पित होने में असमर्थ रहता है। जीव चेतना विधि से मानव विवश हो जाता है। क्या किया जाए? जो तत्काल समझने को तैयार हैं उन्हीं को पारंगत बनाया जाए। उन्हीं से शिक्षण संस्थाओं में मानवीय शिक्षा का व्यवहारान्वयन किया जाए, बच्चों में संस्कार डाला जाए। बच्चों में संस्कार डालने से घर परिवार में स्वभाविक रूप में परिवर्तन होना ही है। इस तरह शिक्षा का मानवीकरण की आवश्यकता है शिक्षा सार्थक होना ही व्यवस्था दूसरी योजना है।

पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था की इकाईयाँ मानव के लिए पूरक हैं। किन्तु मानव उनके लिये पूरक होना विचाराधीन है। उसको पूरा करने की आवश्यकता है। तभी मानव का व्यवस्था में जीने का प्रमाण मिल पायेगा।

जागृत जीवन सहज मूल्य है सुख, शांति, संतोष, आनंद। जीवन सहज मूल्य से मानव लक्ष्य सफल होता है। मानव लक्ष्य है समाधान, समृद्धि, अभय व सहअस्तित्व। मानव लक्ष्य प्रमाणित होता है, जीवन मूल्य प्रमाणित होता है। समाधान = सुख। जहाँ-जहाँ हम समाधानित रहते हैं वहाँ-वहाँ सुख का अनुभव करते हैं। जहाँ पर समाधानित नहीं है वहाँ हम पीड़ित होते हैं। उसके बाद परिवार में हम जीते हैं समाधान समृद्धि पूर्वक प्रमाणित होने की स्थिति में शांति अनुभव करते हैं। व्यवस्था में जीने के अर्थ में संतोष-आनंद अनुभव करते हैं। अपनी समझदारी को प्रमाणित करने के अर्थ में आनन्द अनुभव करते हैं। इस प्रकार,