जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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हर आदमी जिम्मेदार होना चाहता है। जिम्मेदारी का प्रयोजन परंपरा में दे नहीं पाये। लोगों ने शुभ की कामना की है सबका शुभ हो, सबके परिवार हो, सबका मंगल हो, इस प्रकार की बातों को तो सब लोग दोहराए है। किन्तु कहने मात्र से, दोहराने मात्र से, तो रास्ता मिलता नहीं। जिस किताब में लिखा रहता है सबका शुभ हो उसी में लिखा रहता है सारा संसार झूठा है और असली माँ-बाप ईश्वर है उन्हीं के शरण में जाना चाहिये इससे कल्याण हुआ नहीं। असली माँ-बाप के पास जाने के बाद मानव पाया नहीं तब कल्याण कहाँ-किसका होगा। इस सब बात से कोई प्रयोजन निकलता नहीं। समझदार होने पर ही आदमी का प्रयोजन स्पष्ट होता है। सभी संबंधों में प्रयोजन निहित रहता ही है। क्या प्रयोजन है? समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को सफल बनाने के अर्थ में ही प्रयोजन है। सारे संबंधों का प्रयोजन इसी से जुड़ा रहता है इसमें जुड़ने से परंपरा बन जाती है। समझदारी की ही परंपरा होगी नासमझी की कोई परंपरा अखण्ड होगी नहीं। इसलिए अभी तक कोई परंपरा बनी नहीं सर्व शुभ के अर्थ में। वर्तमान शिक्षा में जब व्यक्ति पढ़कर तैयार होता है स्वयं को सबसे बुद्धिमान मानता है। संसार को मूर्ख मानता है। ऐसे स्नातक हर वर्ष करोड़ों बनते हैं। एक-एक ऐसे स्नातक को कैसे समझदार बनाया जाये? कहां से इतने डाक्टर लाया जाये जो इनको ठीक कर सके।

स्वयं समझे बिना कोई स्वीकार करता नहीं। इसका गवाही मैं स्वयं हूँ। हमारे परिवार में वेदमूर्ति, बगल में वेदमूर्ति, पूरा गाँव में वेदमूर्ति किन्तु हमें परिवार के लोग वेद नहीं पढ़ा पाये क्योंकि हम पढ़ना नहीं चाहे। किन्तु, इस धरती पर समझदार हर मानव बनना चाहता है। इस आधार पर हर मानव समझदार होने की पूर्ण संभावना है। इस प्रवृत्ति को देखकर ही इस अभियान को शुरू किया। हर मानव का समझदार बनाने का भी अरमान है इस सच्चाई के साथ शुरूआत किये हैं। इस शुरूआत से जो लोग समझ चुके हैं उनको राहत मिली है उनमें वे सब गुण पैदा हुए हैं जिन्हें हम मानवीयतापूर्ण रूप में पहचानते हैं।

नैतिकता का मूल तत्व जो तन, मन, धन रूपी अर्थ को प्रयोजन के अर्थ में नियोजित करना है। जिसे सदुपयोग कहते हैं। सदुपयोग दो अर्थों में होता है - 1.