जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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है और हमारे व्यवहार में निरंतर प्रखरता, निखार प्रकट होता है। यह सब चीजें न्याय पूर्वक जीने से अनायास ही उपलब्ध होती है। जिसके लिए कहते हैं यह बहुत पुण्य से मिलेगा। पुण्य का मतलब हमको जो समझ में आया वह है समझदार होना। मानव समझदार होने की परंपरा में अपनी योग्यतायें, क्षमतायें, पात्रतायें, अपने आप से प्रमाणित करना शुरू करता है। क्षमता अर्थात् वहन करने वाली क्रिया। वहन क्या करता है? या तो जागृति का या भ्रम का। मानव जब जागृत हो गया तब भ्रम अपने आप विदा हो जाता है। मानव संस्कारानुषंगीय इकाई है। समझदारी या भ्रम परंपरापूर्वक ही आता है। मानव संतान में उसकी परंपरा जन्म से ही विद्यमान होने के कारण वे गुण उसमें प्रचलित प्रेषित हो जाते हैं। इसके बाद आता है पुरूषार्थ और परमार्थ। पुरूषार्थ, परमार्थ के आधार पर मानव समझदार होकर भ्रम से मुक्त होता है। भ्रम से मुक्ति का तात्पर्य जीवन जागृति पूर्वक जीने के कार्यकलाप। अभी तक परंपरा से हमको जो कुछ शिक्षा मिली है वह है शरीर सापेक्ष जीना इसका गवाही है लाभोन्माद, कामोन्माद और भोगोन्माद के लिए पढ़ाते हैं। जबकि मानव, जीवों पशुओं से भिन्न है, भिन्न प्रकार की प्रवृत्ति वाला है। जीवन के कारण मानव में बहुमुखी अभिव्यक्ति है। मानव समाधान चाहता है कोई पशु-झाड़-पत्थर समाधान नहीं चाहता। मानव समृद्धि चाहता है कोई पशु-पक्षी समृद्धि नहीं चाहता। किसी भी जानवर में, शेर, गाय, सांप, सुअर, आदि में भी संग्रह की प्रवृति नहीं है। चींटी भी संग्रह के उद्देश्य से संग्रह करती है ऐसा कुछ नहीं है। संग्रह के लिए प्रवृति है ऐसा नहीं है। वस्तु मिलता है इकट्ठा किया रहता है। मानव में जानबूझकर संग्रह-सुविधा की प्रवृत्तियाँ होती है उसका कारण भोग अतिभोग की वासना है। इस आधार पर समाधान और व्यवस्था लक्ष्य न होकर संग्रह सुविधा हमारा लक्ष्य हो गया और उसके लिए प्रिय, हित, लाभ दृष्टिकोण रहा और फलस्वरूप हम दुखी होते रहे, संघर्ष करते रहे, प्रताड़ित होते रहे।

इस परेशानी से छूटने का एकमात्र उपाय है जीवन जागृति और सहअस्तित्व को समझें और मानवीयतापूर्ण आचरण को समझें। मानव ही अस्तित्व में सर्वोच्च विकसित इकाई है शरीर के रूप में और जीवन के रूप में। जीवन अपने अस्तित्व को और जागृति को प्रमाणित करने के लिए शरीर को प्रयोग करता है। प्रयोग करने के समय में वह बराबर शरीर को जीवंत बनाये रखता है बाद में शरीर को ही