जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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व्यवस्था के रूप में हम स्वयं में जीना समाधान-समृद्धि के रूप में स्पष्ट है। समग्र व्यवस्था अभी भी बनी नहीं है मानव परंपरा में। अखण्ड समाज व्यवस्था के रूप में जीने के बाद हमारे अनुभव में सहअस्तित्व में जो वस्तु जैसा है उसको वैसा ही समझने वाली बात का परम्परा रूप में प्रमाण ही है, अनुभव के लिए पुनः प्रमाण मिल जाता है। हमारा अनुभव बुलंद होता रहता है। इस ढंग से अनुभवमूलक विधि से जीने वाली बात आयी। इस तरह निष्कर्ष निकला मानव समझदारी पूर्वक अनुभवमूलक विधि से व्यवस्था में जीता है। जीवावस्था वंशानुषंगी विधि से, प्राणावस्था बीजानुषंगी विधि से और पदार्थावस्था परिणामानुषंगी विधि से, व्यवस्था में रहते हैं।

इस मुद्दे पर पहुँचे कि समझदारी निश्चित है यह विकसित चेतना सहित जीना ही है। समझदारी का धारक वाहक निश्चित है, इस कारण समझदारी का प्रमाण निश्चित है। समझदार जीवन ही होता है। समझता जीवन ही है समझदारी का प्रमाण मानव परंपरा में होता है क्योंकि मानव शरीर में ही समृद्ध पूर्ण मेधस की रचना पायी जाती है और किसी परंपरा (जीव) में समझदारी का प्रमाण मिलेगा नहीं। सहअस्तित्व में पूरकता, उदात्तिकरण, विकास क्रम, विकास और जागृति ये सभी चीज समायी है। इन सभी बिन्दुओं को समझने की जो विधि है वह मानव में ही समाहित है, क्षमता भी मानव में ही समाहित है।

अस्तित्व को समझने का मूल मुद्दा इतना ही है कि अस्तित्व सत्ता में संपृक्त प्रकृति ही है। ये एक दूसरे के साथ ओत-प्रोत और सदा-सदा के लिए अविभाज्य, निरंतर विद्यमान, वर्तमान होना पाया जाता है। प्रकृति को व्यापक वस्तु से अलग करने की कोई विधि नहीं है, अलग करने का कोई प्रयोजन नहीं है, अलग हो नहीं सकते। इस तरह अस्तित्व में जो नहीं है उसकी हम कल्पना करके भी कुछ नहीं कर पायेंगे। अस्तित्व में जो है उसी को समझने की बात है। प्रमाणित करने की बात है। अस्तित्व ही चार अवस्थाओं में व्यक्त है।

यदि समझदारी को हम प्रमाणित नहीं कर पायेंगे तो ना हम परिवार व्यवस्था ना समाज व्यवस्था में जी पायेंगे। हर जगह में हम परेशान होते ही हैं। सात सौ करोड़ मानव का इस धरती पर हो गया लेकिन हमारा व्यवस्था में जीना अभी बना