जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
मानव सुखपूर्वक जीना चाहता है किन्तु जब मानव वंशानुषंगी विधि से जीने जाता है तो परेशान होता है, इतनी ही बात है।
इसको अच्छे ढंग से हमको समझने की जरूरत है इसको अच्छे ढंग से प्रमाणित करने की जरूरत है। समझदारी ही प्रमाणित करने की वस्तु है। जब मैं आपसे समझकर दूसरों को समझा पाता हूँ तभी आप प्रमाणित होते हैं। इस तरह समझदारी परंपरा के रूप में बहती है। नासमझी परंपरा में बह नहीं सकती। समझदारी की वस्तु में विविधता नहीं होती। विविधता होती है तो प्रस्तुति में। इसलिए पीढ़ी दर पीढ़ी और सुदृढ़ होगी, प्रखर होगी। सही करने का तरीका और प्रखर होता जाता है। सही करने की सार्थकता और सुलभ हो जाती है। सर्वमानव के लिए इसकी आवश्यकता है। इसलिए समझदारी संपन्न मानव ही परंपरा को सही ढंग से आगे पीढ़ी को अर्पित कर स्वयं संतुष्ट हो सकता है आगे पीढ़ी संतुष्ट हो सकती है।
मानव संस्कारानुषंगी इकाई है। संस्कार समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी का संयुक्त रूप में वर्तमान ही होती है। चूंकि गलतियाँ किसी को स्वीकार नहीं है इसलिए गलतियाँ संस्कार होती नहीं है। गलतियों को कोई स्वीकारता नहीं है किन्तु फंसा रहता है। कोई आदमी चाहे हजार गलती किया हुआ हो किन्तु उसे वे गलतियाँ स्वीकृत नहीं है। चूंकि गलतियाँ किसी को स्वीकार नहीं है इसलिए उन्हें कोई आगे पीढ़ी को अर्पित नहीं करता, अतः नासमझी (गलतियों) की परम्परा नहीं बनती। तो इन तमाम गवाहियों के साथ यही निष्कर्ष निकलता है कि समझदारी ही परंपरा सहज स्त्रोत है। समझदारी के लिए ध्रुव बिन्दु है मानव चेतना रूपी समानता। समानता का ध्रुव है जीवन। जीवन में गठनपूर्णता और अक्षय बल, अक्षय शक्ति ये ही समानताएं है। मैं कितनी भी आशा, विचार, इच्छा करता हूँ मुझमें आशा, विचार, इच्छा करने की ताकत बनी ही रहती है। इस तरह से जीवन में अक्षय बल और शक्ति होने के लिए परिणामशीलता से मुक्त हुए बिना हो नहीं सकता ये तर्क विधि से जीवन की गठनपूर्णता को स्वीकारने की बात बनती है।
मुझमें जब समझदारी स्वीकार हो गयी इसको कैसे जाँचा जाए। इसको व्यवहार में, कार्य में, व्यवस्था में जाँचा जाता है। मैंने व्यवहार और कार्य में कई बार जाँचा,