जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
नहीं। संख्या बढ़ने या घटने से आदमी समझ गया हो ऐसा भी कुछ नहीं है। मानव परंपरा में क्या प्रयोजन है : समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व सहज प्रमाण। सहअस्तित्व विधि से हम पूरक विधि से जी पाते हैं। अभय विधि से वर्तमान में विश्वास करते हैं। समृद्धि विधि से हम परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर पाते हैं। समाधान पूर्वक ही न्यायपूर्वक जी पाते हैं।
मानव परंपरा में अभी तक जो प्रयत्न किया आदर्शवादी विधि से और भौतिकवादी विधि से हम दोनों विधि से समझदारी को पाये नहीं। उसका मूल कारण है अस्तित्व सहअस्तित्व के रूप में समझ में नहीं आना। सहअस्तित्व में जीवन व जीवन जागृति को समझने में भूल हो गयी फलस्वरूप जीवन एवम् समझदारी की परंपरा बनी नहीं। जब परंपरा बनी नहीं तो व्यवस्था में जीना कहाँ से आयेगा। समझदारी के अभाव में मानव, मानव के साथ न्यायपूर्वक और प्रकृति (जीव, वनस्पति, पदार्थ) के साथ नियमपूर्वक, संतुलित रूप से जीना बना नहीं। इसी के कारण अनुपम नैसर्गिकता को हनन करता रहा।
मानव को न्याय मिला नहीं। बड़े-बड़े न्यायालयों के न्यायाधीशों से पूछा गया तो उन्होंने कहा हम फैसला करते हैं न्याय नहीं करते। इस स्थिति में जब न्यायालय, न्याय को नहीं जानता है तो उसे न्यायालय कहना कितना सच होगा और उन्हीं न्यायालयों में कहा जाता है सच बोलो। अब कहाँ तक सच्चाई है न्यायालय में क्या सच्चाई को खोजा जाए। इसी तरह कार्यालय में कार्य क्या होता है? गलतियों को खोजना, अपराध को खोजना और उनको गलतियों और अपराध से रोकना। इसी काम के लिए सारे सरकारी तंत्र में कर्मचारी नियोजित हैं।
मानव जागृत होने के लिए मूल वस्तु ‘समझदारी’ है। हर मानव को यदि समझदारी पहुँच पाता है तो मानव न्यायपूर्वक जी सकेगा। न्यायपूर्वक जीने के साथ समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व अपने आप से आते हैं। बिना न्याय पूर्वक जिये समाधान आयेगा नहीं। इससे पता लगता है मानवीयता का जो रीढ़ है वह न्याय है। न्याय सर्वप्रथम समझदार परिवार में प्रमाणित होता है, फिर समाज में और पूरी धरती पर सार्वभौम व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होता है। न्याय में जीने से मानव तृप्त रहता है, सुखी रहता है, समाधानित रहता है, वर्तमान में विश्वास सुदृढ़ होता जाता