जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
तरह मानव एवं पशु शरीर रचना गर्भाशय में रचित होते हैं एवं कुछ काल पश्चात् विरचित होकर मिट्टी, पानी, हवा में परिवर्तित हो जाते हैं।
इसके बाद समझने वाली वस्तु जीवन हमेशा एक सा रहता है। मानव शरीर में समझने वाली वस्तु केवल जीवन ही है। समझने के रूप में अस्तित्व को सहअस्तित्व के रूप में ही समझा गया। सहअस्तित्व के नजरिए में ही संपूर्ण परिस्थिति में हम व्यवस्थापूर्वक जी पाते हैं। व्यवस्था में जीना ही मानव का लक्ष्य है, व्यवस्था में जीना ही सुख है। अव्यवस्था में जीकर ‘जीवन’ समस्या से पीड़ित होता है। फलस्वरूप समाधान की खोज स्वाभाविक है जीवन में निरंतर शोध अनुसंधान प्रवृत्ति होता है। जीवन ही नहीं जड़ परमाणु में भी अनुसंधान होता रहता है। यही परिवर्तन के लिए कारक तत्व है। हर जगह सहअस्तित्व में होने की प्रवृत्ति है। परमाणु अंश भी सहअस्तित्व में होने की प्रवृत्तिवश ही परमाणु के रूप में और परमाणु अणु के रूप में गठित होते रहते हैं। अणु भी इसी प्रवृत्तिवश अणुपिण्डों के रूप में गठित होते रहते हैं। इस तरह से अनंत ग्रह, गोल अस्तित्व में होने की बात आदमी को समझ में आती है। जड़ प्रकृति में विभिन्नता का मूल रूप परमाणु में निहित परमाणु अंशों का संख्या भेद है। इन विविध वस्तुओं की विविधता के आधार पर, स्थापना के आधार पर ही इनसे रचित रचनाओं में विविधता का होना पाया जाता है। जैसे वनस्पतियों में अनेक प्रकार की रचनाएं हैं। जिन-जिन रचनाओं से रचित वस्तुएं हैं वे अपने स्वाभाविक रूप में अपने स्वरूप में वैभवित है। उसका एक भौतिक प्रयोजन है जो सहअस्तित्व में भागीदारी ही है। रचना के मूल में जो द्रव्य है वे भी सहअस्तित्व में होने की ही महिमा है। इस महिमा के आधार पर संपूर्ण अस्तित्व विद्यमान है, प्रमाणित है, प्रकाशित है। इस अस्तित्व में ही मानव एक भाग है।
सहअस्तित्व में मानव अविभाज्य है। सहअस्तित्व को छोड़कर मानव कहीं भाग नहीं सकता। भागने की जितनी कोशिश किया उतना ही परेशान हुआ। हर आदमी अपने में समाधान चाहता है उसके लिए हर आदमी शोध करता है। हर व्यक्ति व्यवस्था शोध करने का अधिकारी है। हर व्यक्ति जब शोधपूर्वक ही जीता है तब इसमें व्यक्ति को कर्म स्वतंत्रता अपने आप समझ में आता है। शोध का उद्देश्य