जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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सामाजिक होने पर तृप्ति मुझको अपने आप में मिलने लगी। इसका लाभ यह हुआ कि हमको संसार के प्रति कोई शिकायत शेष नहीं रही। अब मैं कितना सार्थक करता हूँ इस बात की जाँच हर दम करता रहता हूँ। मैं जितने संबंधों में जीता हूँ अपने दायित्व कर्तव्यों के साथ सार्थक जीता हूँ। पाँचवी स्थिति आई है समृद्धि। वैसे तो मैं परिश्रमी परिवार में पैदा हुआ, परिश्रम करना, सेवा करना हम जानते थे। किन्तु समृद्धि का मतलब हमको समझ में नहीं आता था। अब समृद्धि का मतलब समझ में आ गया। हमारे परिवार के लिए जितनी जरूरत है उससे ज्यादा हम उत्पादन कर लेते हैं इसलिए हम समृद्धि का अनुभव करते हैं। इस ढंग से बहुत सारी बढ़िया चीजें हमारे हाथ लग गयी इसका नाम दिया स्वायत्तता। मैं अपने में स्वायत्त हुआ इसलिए आप भी हो सकते हैं। जब हम स्वायत्त हुए तो हमारे बाद इस संसार को हम अर्पित कर सकते हैं, समझा सकते हैं, बोल सकते हैं, फलस्वरूप उसको एक वांङ्गमय दस्तावेज रूप देना शुरू किया। पहला दस्तावेज हुआ – ‘मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद’। मध्यस्थ दर्शन को चार भाग में ध्रुवीकृत किया।

पहला भाग का नाम दिया है- ‘मानव व्यवहार दर्शन’। दूसरा भाग का नाम है - ‘कर्म दर्शन’। तीसरा भाग का नाम है – ‘अभ्यास दर्शन’। चौथे भाग का नाम है – ‘अनुभव दर्शन’।

इस ढंग से चार भाग में पूरा दर्शन को लिखा। इनका मूल तत्व है मध्यस्थ दर्शन। अस्तित्व में सम, विषम और मध्यस्थ शक्तियाँ अर्थात् गतियाँ हैं। इसके अपने-अपने ढंग के परिणाम हैं। जिसमें से मध्यस्थ बल और शक्ति वैभवित होना ही मानव परंपरा का अद्भुत ध्येय है। इससे मैं भी चमत्कृत हुआ। अभी तक जितने भी वैज्ञानिक, ज्ञानी, अज्ञानी जिनको भी इसकी गंध लगी है वो चमत्कृत होते ही हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार सम, विषम शक्तियों को मानने की जगह में है मध्यस्थ शक्ति, मध्यस्थ बल को कोई प्रयोजन के रूप में समझना अभी तक बना नहीं है। मैं सोचता हूँ यह बहुत बड़ी भारी कमी और खामी रह गयी। इसलिए पुनर्विचार करने के लिए जरूरत आ गयी तो मध्यस्थ बल, मध्यस्थ शक्ति, मध्यस्थ सत्ता,