अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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मानव को समझने के मूल में जीव कोटि का मानते हुए झेल लिया। यही निर्मूल्यन होने के फलस्वरूप भ्रम के शिकंजे में कसता ही गया। नैसर्गिकता का अवमूल्यन - मानवेत्तर जीव कोटि, वन, खनिज के मूल्यों का नासमझी वश दुरुपयोग किया। वन और खनिज के दुरुपयोगिता क्रम में धरती का अवमूल्यन हुआ। मानव जब वैज्ञानिक युग में आया तब से धरती में निहित वन-खनिज संसार पर आक्रमण तेजी से बढ़ाया। उन-उन समय में इसको उपलब्धियाँ मान ली गई। इसके परिणाम में आज की स्थिति में परिवर्तन पाते हैं अथवा दुष्परिणामों को पाते हैं। दूषित हवा, पानी, धरती, अनाज, धरती का वातावरण और दूषित इरादे। लाभोन्मादी, भोगान्मादी, कामोन्मादी शिक्षा तंत्र, प्रचार तंत्र और गति माध्यम का दुरुपयोग, ये सब साक्ष्य भ्रमित मानव मानस के उपक्रम के रूप में हम पाते हैं।

भ्रम-निर्भ्रमता को आंकलित करना, जीव चेतना एवं मानव चेतना के आधार पर है। जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान में पारंगत होने के उपरांत ही तुलनात्मक समझ संभव होना पाया गया। इन्हीं आधारों पर आवर्तनशील अर्थशास्त्र और व्यवस्था की भी संभावना स्पष्ट हुई है। यही रौशनी सहअस्तित्ववादी विश्व दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है। जीवन ज्ञान सम्पन्न होने के उपरान्त ही सहअस्तित्व में अविभाज्य मानव सहअस्तित्व को जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना संभव हुआ है। पहचानने, निर्वाह करने के क्रम में ही मानवीयतापूर्ण आचरण प्रमाणित होना पाया जाता है। मानवीयता पूर्ण आचरण मूलतः तीनों आयाम में (मूल्य, चरित्र, नैतिकता) सम्पन्न होता है। मानवीयता पूर्ण चरित्र को स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष, दयापूर्ण कार्य-व्यवहार के रूप में देखा गया है। चरित्र के साथ मूल्यों का स्वरुप को संबंधों की पहचान, मानव मूल्य, स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य का निर्वाह, मूल्यांकन पूर्वक उभयतृप्ति के रुप में होना देखा गया है। नैतिकता को तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग और सुरक्षा के रूप में देखा गया है। चरित्र के रूप में समाज मानव, मूल्य के रूप में परिवार मानव और नैतिकता के रूप में व्यवस्था मानव होना प्रमाणित है। यह मानवत्व रूपी मानव चेतना पूर्वक सार्थक होना पाया जाता है।

मानवत्व मानव का ‘स्वत्व’ होने के आधार पर व्यवस्था का स्वरूप परिकल्पना जागृत मानव में बना ही रहा है। प्रकारान्तर से प्रयोग होता ही रहा है। मानवत्व मानव में