अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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पदार्थावस्था, प्राणावस्था के लिए पूरक होना सर्वविदित तथ्य है। धरती पर ही सभी अन्न-वनस्पति-वन सम्पदा का होना देखा है। यही प्राणावस्था की वस्तुएं हैं और ये सभी निष्प्राणित होने के उपरांत इसी धरती में समाता हुआ हर मानव देखता है। इसके साथ-साथ और तथ्य भी जुड़े हुए होते हैं। यह धरती अपने-आप में अथक प्रयास और प्रक्रिया सहित ऋतु संतुलन व्यवस्था को प्राप्त किया। तभी इस धरती पर वर्षा, ठंडी, गर्मी की निश्चित दिनों का, मासों का गणना मानव में प्रचलित रूप में ज्ञातव्य है। ऋतु संतुलन की महिमा ही है इस धरती में सम्पूर्ण अन्न, वनस्पतियाँ स्वयं स्फूर्त विधि से अलंकृत, सुशोभित हुआ करते हैं। जैसे शिशिर ऋतु में पत्ते पक जाना, वसंत ऋतु में पल्लवित होना, कुसुमित होना, वर्षा ऋतु में अपने में परिपुष्ट होना देखा जाता है। इस विधि से वन सम्पदाएँ समृद्ध होता हुआ देखने को मिलता है। धरती पर अन्न का उपज मानव के संयोग से सम्पन्न हो पाता हैं। मानव, अपने लिए उपयुक्त आहार वस्तुओं को अनेकों प्रयासों के उपरांत पहचान पाया और उसकी उपज विधियों में अथवा उत्पादन विधियों में पारंगत होता आया है और परंपरा में कृषि कार्य की आवश्यकता, प्रवृत्ति, पारंगत होने की परम्परा परिवार, गाँवों में स्थापित होती हुई देखने को मिली। आज तमाम शहर, नगर का उदय होने के उपरांत भी कृषि कार्यों का सर्वाधिक धारक वाहकता गाँव में ही देखा जाता है। इस विधा में अन्नोपज में विपुलता को पाने के लिए वैज्ञानिक प्रवृत्तियाँ भी अनेक प्रयोगों को कर गुजरा। अन्न वनस्पतियाँ अपने आप में नैसर्गिक-प्राकृतिक विधि से जो गुणों को स्थापित कर ली थीं, वही गुण कितने भी मोटा, बड़ा, ऊँचा बनाने की क्रियाओं-स्थितियों को देखा गया। जैसे गेहूँ को मोटा दाना बना दिया। पतले दाने के स्थान पर दाना मोटा तो हो गया, एक-एक दाने में जो पुष्टि तत्व नैसर्गिक विधि से प्राप्त था वह उतना ही मात्रा में विद्यमान रहता हुआ देखने को मिला। इन प्रयासों में विभिन्न प्रजाति के पराग सींचनों, रासायनिक उर्वरक विधियों, कृत्रिम पराग विधियों को भी अपनाकर स्तुषी संस्कार को स्थापित किये।

वैज्ञानिक युग के पहले जितने भी प्रजाति की अन्नोपज स्थापित हुई वे सब नैसर्गिक, भौगोलिक और जलवायु के आधार पर विकसित हुई। जितने भी अन्न प्रजातियों को मानव ने पहचाना है उन-उन भौगोलिक परिस्थितियों में अपने मूल रूप में प्रकृति प्रदत्त रहा। जैसे - जंगली धान को अनेक प्रयोगों सहित ही घरौआ बना पाया। आज भी मोटे-पतले जंगली धान प्रचलित हैं। इसी प्रकार अन्य अनाज तैलीय रूप को पहचानने के