अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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प्रकार अनेक ग्रह-गोल विरल रूप में नियंत्रित है, कुछ ग्रह-गोल ठोस रूप में नियंत्रित है और कुछ ग्रह-गोल ठोस रूप के बाद संपूर्ण रासायनिक क्रिया-प्रक्रिया सहित रचना-विरचना के रूप में वैभवित रहना पाया जाता है। ऐसी समृद्ध धरतियों में से यह धरती जिसमें मानव शरण लिया है साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत है। अतएव अव्यवस्था के लिए कारक कोई इकाई अस्तित्व में देखने को मिला है, वह केवल भ्रमित मानव है। इस आशय से भी स्पष्ट होता है कि हर भ्रमित मानव ही जागृत होना एक आवश्यकता है।

उल्का के बारे में और भी प्रक्रियाएं देखने को मिलता है। वह है इस धरती के वातावरण में ब्रह्मांडीय किरणों और विकिरणों का संचार होता ही रहता है जिससे विकास के लिए समुचित उपकार मार्ग प्रशस्त होता ही रहता है। इसी क्रम में इसी धरती के वातावरण में स्थित विरल वस्तुएं किरण-विकिरण से ऊर्मित होकर ठोस होने के क्रम में उल्कापात भी कहा जाता है। ऊर्मित का तात्पर्य ऊर्जित और परिमित होने से है। ऐसी स्थिति में अर्थात् विरल वस्तु ठोस होने के लिए प्रवर्तित होने के क्रम में आकर्षण-विकर्षण का संयोग होना स्वाभाविक है क्योंकि सभी विरल वस्तुएं अणुओं के रूप में होना पाया जाता है। इसलिए ऐसा संयोग अनिवार्य रहता ही है। इसी पद्धति में आकर्षण-विकर्षण का दबाव में आयी हुई अणु समूह ज्वलनशील अथवा प्रकाशपुंज के रूप में दिखना भी देखा गया है। यह सभी क्रिया-प्रक्रियाएँ, व्यवस्था के अर्थ में ही सहअस्तित्व में हैं। मानव कुल जागृत होने के उपरांत ही विधिवत व्यवस्था क्रम में अपने को प्रमाणित करना बन पाता है।

इस अध्याय में जितने भी विश्लेषण हुए वह सब मानव जागृति के अर्थ में ही केन्द्रित है। यह स्पष्ट रूप से सहअस्तित्व सहज सभी अवस्थाएँ एक दूसरे की पूरक होना आवर्तनशीलता है। हर अवस्थाओं में पूरकता व्यवस्था को अक्षुण्ण बनाए रखने के अर्थ में ही हर पद परंपराएं निरन्तर वैभवित होना सहज है। इसी विधि में मानव भी एक परंपरा है। वह अपनी परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए स्वयं स्फूर्त व्यवस्था को अपनाना ही होगा। स्वयं स्फूर्त व्यवस्था का ही दूसरा नामकरण जागृत परंपरा है। जागृति हर मानव की वांछित अपेक्षा है। जागृति, पूरकता और सहअस्तित्व विधि से ही सम्पन्न हो पाता है।