अर्थशास्त्र
by A Nagraj
रचना-विरचना होने की परिकल्पना आता है। धरती के संबंध में हर ग्रह गोल अपने स्थिति में एक रचना के रूप में ही होते हैं चाहे वे ठोस रूप में हो या विरल रूप में हो। ये दोनों स्थिति में दिखने वाली रचनाएं प्रत्येक स्थिति शून्याकर्षण के आधार पर अक्षुण्ण बने रहते हैं। ऐसी दोनों प्रकार की रचना में से ठोस रचना के उपरान्त ही रासायनिक रचना के लिए तत्पर होना पाया जाता है। इस धरती में रासायनिक रचनाएं अपने चरमोत्कर्षता पर्यन्त रचना क्रम को बनाए रखा है। यह धरती स्वयं इस बात की गवाही है। रासायनिक रचनाएं न हो ऐसे भी धरती हैं। ऐसे भी रचनाएं ग्रह-गोल के रूप में है और ठोस रूप न हो परन्तु केवल विरल रूप हो ऐसे भी ग्रह-गोल हैं। उक्त तीनों स्थितियों में हर ग्रह-गोल अपने निरंतरता को बनाएं रखते हैं क्योंकि अस्तित्व न तो घटता है न ही बढ़ता है। इसी आधार पर ग्रह गोल की अक्षुण्णता को स्वीकारना बनता है। ऐसी स्वीकृति की आवश्यकता और अधिकार दोनों मानव में होना पाया जाता है। किसी ग्रह गोल में और कोई अव्यवस्थित उल्काएं (धूमकेतु) समाने मात्र से अस्तित्व में वस्तु बढ़ना-घटना नहीं हुई। अव्यवस्थित वस्तुएं व्यवस्था में भागीदारी के लिए अर्पित होना अस्तित्व सहज चरित्र औैर कार्य है। ऐसी घटनाओं को यही कहा जा सकता है कि जिस ग्रह गोल में जो समा गया उसकी समृद्धि हुई। अव्यवस्थित रूप में उल्काओं (धूमकेतुओं) के होने का कारण किसी भी धरती में वैज्ञानिक विधि से नाभिकीय प्रयोगों अथवा परिवेशीय अंशों का आवेश क्रम में किये गये प्रयोगों के फलस्वरूप किसी भी धरती से आंशिक वस्तुएं शून्याकर्षण स्थिति में असीम अवकाश में होना संभव है, इसी क्रम में इन वस्तुओं को पहचाना जा सकता है। पहचानने का प्रमाण मानव ही ऐसी इकाई है जो प्राकृतिक सहज क्रियाकलापों में हस्तक्षेप करता है, फलत: ह्रास विधि ज्ञान को विज्ञान कहना बनता है। यथा- मेंढक, सांप, आदमी, परमाणुओं को काटो, धरती को काटो-उड़ाओ ये सब कल्पनाएं मानव में होता है। अपनी कल्पनाओं के अनुसार प्रयोग करने का अधिकार मानव में होता है। इन्हीं प्रयोगों के चलते मानव को अथवा हर भ्रमित मानव को अव्यवस्था में जीने की विवशता को भी स्वीकार करता है। यही सर्वदृष्टिगोचर घटना अव्यवस्थित मानव ही अव्यवस्था के लिए प्रयत्न करता है यह भी बात अव्यवस्था के कारक तत्व के रूप में मानव को पहचाना जा सकता है।
इस प्रकार रचना-विरचनाएं अपने संपूर्णता के साथ ही वैभवित रहते हुए देखने को मिलता है। जैसे सूरज विरल रूप में होते हुए भी नियंत्रित रहना पाया जाता है। इसी