अर्थशास्त्र
by A Nagraj
रहती है उसे ऊपर लाने के लिए भी बाह्य बल-शक्ति लगता है। इसे हर मानव प्राय: देखता ही है। यही स्थिति सभी ग्रह-गोलों में होना सहज है। यहाँ इन तथ्यों के वर्णन का प्रयोजन यही रहा कि अन्न, वनस्पतियों की रचना रस और ठोस संयुक्त रूप में होना दिखता है। इसके विरचना क्रम में यह भी देखने को मिलता है कि पदार्थ शनै:-शनै: वाष्पित होकर शुष्क होता है। इसके अनन्तर धरती के संयोग से मिट्टी के सदृष्य हो जाता है। इसी प्रकार एक छोटे से छोटे तृण से बड़े से बड़े वृक्षों को भी देखा गया है। अस्तु इस धरती में रासायनिक रचना संसार ही धरती के उर्वर होने का स्रोत है।
रासायनिक संसार पदार्थावस्था से उदात्तीकृत द्रव्यों के रूप में दृष्टव्य हैं। रासायनिक द्रव्यों का तात्पर्य है एक से अधिक प्रजाति के अणुएं निश्चित अनुपात में मिलकर दोनों, अपने-अपने आचरणों को त्याग देते हैं और तीसरे प्रकार के आचरण सम्पन्न होकर प्रकाशित रहते हैं। इस घटना का सटीक अध्ययन करने पर आवर्तनशीलता, उदात्तीकरण, पूरकता, सहअस्तित्व के अर्थ में स्पष्ट हो जाता है।
सत्ता में संपृक्त प्रकृति ऊर्जा सम्पन्न बल सम्पन्नता क्रम में क्रिया के रूप में व्याख्यायित है। क्रिया श्रम-गति-परिणाम का संयुक्त रूप ही है। इसलिए मानव अध्ययन कर सकता है। सत्ता स्थितिपूर्णता के रूप में अर्थात् सर्वदा व्यापक, पारदर्शी, पारगामी के रूप में ही विद्यमान है। इसलिए इसे स्थितिपूर्ण नाम है। ऐसी स्थितिपूर्ण सत्ता में अनंत इकाईयों के रूप में अथवा अनगिनत एक-एक के रूप में स्थितिशील प्रकृति सहज जड़-चैतन्य रहना दृष्टव्य है। यही अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व होने का प्रमाण है। पूर्ण में संपृक्त प्रकृति, पूर्णता में गर्भित होना (पूर्णता का आशय सम्पन्न रहना) इस प्रकार से देखा जा सकता है कि प्रत्येक परमाणु अंश एक-दूसरे को पहचानते हैं। इसका प्रमाण निश्चित अच्छी दूरी में है। इतना ही नहीं, निश्चित कार्य और आचरण करते हैं। इसके आगे प्रत्येक परमाणु दूसरे परमाणु को पहचानते हैं। इसका प्रमाण अणुओं के रूप में परमाणुओं का होना स्पष्ट है। प्रत्येक परमाणु सजातीय और विजातीयता को भी पहचानते हैं, इसका प्रमाण रासायनिक द्रव्य हैं। रासायनिक द्रव्यों का तभी प्रकटन होता है। इसके मूल में उदात्तीकरण ही सिद्धांत है। उदात्तीकरण के मूल में विभिन्न प्रजाति के दो अणुएं निश्चित अनुपात सहित संयोजित होकर दोनों अपने