अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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पहले किसी एक प्रजाति के जीव शरीर रचना और उसकी परंपरा स्थापित होने के उपरान्त दूसरे प्रजाति की शरीर रचना सहित परंपरा विधियों से विकसित होना देखा जाता है। मेधस युक्त शरीरों में समृद्ध मेधस युक्त शरीरों के क्रम को इस धरती पर देखा जा सकता है। इसी क्रम में मानव शरीर रचना का भी उद्भूत होना, मेधस रचना क्रम एवं उसकी परिपूर्णता के अर्थ में मानव शरीर में ही सर्वोपरि समृद्ध मेधस रचना एवं उसके अनुरूप शरीर कार्य तंत्र स्पष्ट हो चुका है। इसी के साथ यह भी स्पष्ट है कि मानव शरीर रचना के पहले की जितने भी प्रकार के शरीर रचनाएं प्रस्तुत हैं वे भी समीपस्थ वस्तुओं, घटनाओं से व्यंजित होना दिखाई पड़ती हैं। व्यंजित होने का तात्पर्य तुरंत ही उस ओर (समीचीन शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) अपने प्रवृत्ति को नियोजित करता हुआ से है। इसलिए आदिमानव का भी समीचीन स्थिति, गति, घटनाओं से व्यंजित होना सहज सिद्ध होता है।

एक से अधिक मानवों के लिए सर्वप्रथम रूप के आधार पर संबंधों को पहचानना स्वाभाविक रहा है फलस्वरूप आवश्यकताएं उद्गमित होना अर्थात् आशा-विचार-इच्छा के रूप में गतित होना रहा है। इसी क्रम में खाने-पीने के लिए पहली आवश्यकता, बैठने-सोने स्थल की आवश्यकता, शीत-वात-वर्षा से बचने के लिए आवश्कताएं उद्गमित होती रही। इसी क्रम में पत्ते, वल्कल और घास-फूस से काम लेता हुआ मानव कन्द-मूल तक पहचानने की क्रिया सम्पादित करता रहा। साथ ही क्रूर जीव जानवरों के उपद्रवों से बचने के उपायों को खोजता ही रहा। साथ ही प्रजनन कार्य सम्पन्न होता ही रहा। संतानों का पालन-पोषण-लालन मानव से पूर्व में रही जीवों से भिन्नता को पहचानना रहे आया।

यह भी स्वाभाविक है कि विभिन्न भौगोलिक परिस्थिति की जलवायु भिन्नताएं तब भी रही हैं, अभी भी हैं। अस्तु ऐसी विभिन्न जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों में शुभारंभ किए हुए मानव परंपराएं अपने-अपने रूप (नस्ल) और रंग के साथ होती रही। यही मूलत: जब एक दूसरे जलवायु में पले मानव को देखने को मिला कि नस्ल और रंग की भिन्नतावश द्वेष अथवा भय के आधार पर परस्पर मार-पीट करते आए। यह क्रम जंगलों से कबीला, ग्राम-समूह तक पहुंचने के लिए मानव में पाई जाने वाली कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता की महिमावश प्रवृत्ति और प्रयास स्फूर्त होता रहा। क्योंकि